पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/९६

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बंबी ३३३५ वगला' बी-संज्ञा स्त्री॰ [ अनु० ] नक्कारा । उ०-बज तबल तूर निघोष सात स्वरों के लिये सात छेद होते हैं। यह बाजा मुह से वंबी, सरी सोक असंक ।-रघु० रू०, पृ० २२१ । फूककर बजाया जाता है। बुर-संज्ञा पुं० [हिं० ] दे० 'बबूल' । २. मछली फंसाने का एक प्रौजार । 30-ज्यों बंसी गहि मीन लीन भे मारि काल ले खाई।-जग० श०, पृ० ११६ । वंबू-संज्ञा पुं० [ मलाया० बम्बू (= वास)] चंटू पीने की वास की छोटी पतली नली। विशेष-एक लंबी पतली छड़ी के एक सिरे पर ढोरी बंधी क्रि० प्र०-पीना। होती है और दूसरे सिरे पर अंकुश के आकार की लोहे की एक कटिया बंधी रहती है। इसी कॅटिया में चारा लपेट- बम-रज्ञा पुं० [सं० ब्रह्म, प्रा० बंभ ] ब्रह्मा। उ०-घवं वेद कर डोरी को जल में फाते हैं और छडी को शिकारी पकड़े वंभ हरी कित्ती भाखी । जिनै धम्म साधम्म ससार राखी । रहता है। जब मछली वह चारा खाने लगती है तब वह -पृ० रा०, १५॥ कटिया उसके गले में फंस जाती है और वह खीचकर बंभण-सज्ञा पुं० [सं० ब्राह्मण, प्रा० बंभण ] विप्र । ब्राह्मण । निकाली जाती है। उ०-बंभण भाट तेड़ावीया । दीधा ताजी उतिम ठाई।- ३. मागधी मान में ३० परमाणु को तौल । त्रसरेणु । ४. विष्णु, वी० रासो०, पृ० २५। कृष्ण और राम जी के चरणों का रेखाचिह्न । ५. एक प्रकार वंभणी-संज्ञा स्त्री० [ देशी ] हालाहल । विष [को०। का तृण। बंभर-संज्ञा पुं० [सं० यम्भर ] भ्रमर । भौंरा [को०] । विशेष-यह धान के खेतों में पैदा होता है । इसको 'वांसी' भी बंभराली-संज्ञा स्त्री० [सं० बम्भराली ] मवखी। मक्षिका [को०] । कहते हैं । इसकी पचियाँ बोस की पत्तियों के आकार की बंस-संज्ञा पुं० [सं० वंश ] १. कुल । खानदान। उ०—(क) सोइ होती हैं । इससे धान को बड़ी हानि होती है। सुनो स्रवण तिहिं वंस जाम । ह० रासो, पृ० ६६ । (ख) बसी-संज्ञा पुं० [ देश० ] एक प्रकार का गेहूँ। मालूम होता है, छत्तरी बंस है। -मान०, भा० ५, पृ०६। बसीधर-संज्ञा पुं० [ स० वंशीधर ] श्रीकृष्ण । मुहा०-वंस के बाने घजाना = वंश या कुल, खानदान की बंहिमा-संज्ञा पु०, स्त्री० [सं० बंहिमन् ] अधिकता । प्राचुर्य (को॰) । मर्यादा का निर्वाह करना । उ०-दारुन तेज दिलीस के बहिष्ठ-वि० [सं०] १. अत्यधिक । बहुत ज्यादा । २. अत्यंत बीरनि काहू न बंस के बाने बजाए । छोड़ि हथ्यारनि हाथनि गहरा या नीचा [को०] । जोरि तहाँ सब ही मिलि मूद मुड़ाए।-मति० ग्रं०, बहीय-वि० [सं० बहीचस्] १. अत्यधिक । बहुत । बहुल । २. पृ०४०५॥ अत्यधिक तगड़ा या मोटा (को०] । २. वास । उ०-मिश्री माह मेल करि मोल बिकाना बंस । बँउखा-संज्ञा पुं० [सं० वाहुक या हिं० बहूँटा ] काले धागे का यौं दादू महिंगा भया पारब्रह्म मिलि हंस ।-दादू०, पृ० एक बंध जिसमें झब्बे लगे रहते हैं पौर जिसे स्त्रियां बाह में ११६ । दे० वंश। कोहनी के ऊपर बांधती हैं। बंसकार-संज्ञा पुं० [सं० बंश] [ स्त्री० बंसकारी ] बाँसुरी । उ० बँकाई-संज्ञा स्त्री० [हिं० वंक + आई (प्रत्य॰)] वाता। तिरछापन । सिंह संख डफ वाजन वाजे । वंसकार महुधरि सुर साजे ।- उ०-क) गढरचना घरुनी पलक चितवन भौंह कमान । जायसी (शब्द०)। प्राघु वंकाई ही बढे वरुनि तुरगम तान ।-बिहारी र०, बंसरी-संशा स्त्री० [सं० वंश + हिं• री (प्रत्य॰)] दे० 'बंसी' । दो० ३१६ । (ख) कुंजर हंस सौ छोनि लई गति भौह वंसलोचन-संज्ञा पुं० [सं० वंशलोचन ] वास का सार भाग जो कमान सों लीन्ह बँकाई ।-मोहन०, पृ०६७ । उसके जल जाने के बाद सफेद रंग के छोटे छोटे टुकड़ों के बँकारी-वि० [ स० वक्र ] वक्र । तिरछा । उ०-नासा मोती रूप में पाया जाता है। जगमग जोती लोचन बंक बँकार ।-नंद० ग्रं०, पृ० ३५१ । विशेप-यह रंगपूर, सिलहट और मुरशिदाबाद में लंबी पोर- बँकैत-वि०[सं० कङ्क + हिं० ऐत (प्रत्य॰)][वि० सी० बँकतो] बांका। वाले वांसों की गाँठो में से उनको जलाने पर निकलता है। तिरछा । उ०-कामिनी को नीको विधुवदन बँकेत, कंधों इसे बसकपूर भी कहते हैं। मैनसर काटे नैन पलक बँकती सो। -पजनेस०, पृ० १०॥ वसार-संज्ञा पुं० [ देश० ] बंगसाल । भंडार । (लएकरी)। बँकैती-संज्ञा स्त्री० वांकापन । वसावरि-संज्ञा स्त्री० [सं० वंशावलि ] दे० 'वंशावली' । उ०- वकैयाँ-क्रि० वि० [सं० वक्र ?] घुटनों के बल । बंसावरि बरनत सु सुनि, तंवर राज मति धीर ।-40 वगरी सन्ना स्त्री० [हिं० ] एक प्राभूषण । दे० 'बंगली'। उ०- रासो, पृ० ३४ । मोरी बंगरी मुरकाइ दारी झट पकर निडर नटवर । बसी'-संज्ञा स्त्री० [सं० वंशी] १. बांस की नली का बना हुआ -पोद्दार अभि० ग्र०, पृ० ४३८ । एक प्रकार का बाजा । बांसुरी । वंशी। मुरली । बंगला'-वि० [हिं० बंगाल ] बंगाल देश का। बंगाल संबंधी जसे, बँगला मिठाई, बँगला जूड़ा। विशेष-यह वालिश्च सवा वालिप्त लंबा होता है और इसमें