पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 8.djvu/११२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

मांडनी ३८७१ माँथबंधन मत्र पढि साधि करम विधि यज्ञ करत जेहि लागी जू । ताको भिन्न कपडो के लिये भिन्न भिन्न प्रकार से तैयार किया जाता मुख मांडत केशरि सो ब्रज युवती रमपागी जू ।-भारतेंदु है। उ०—सुरति ताना कर, पवन भरनी भरै, मांडी प्रेम ग्र०, भा० २, पृ० ३७८ | ३ रचना। बनाना। सजाना। अंग अग भीनै ।-पलटू०, पृ० २५ । te लगाना । मारना। जमाना । जैसे, श्रासन मांडना । विशेष--यह मांडी आटे, मैदे अनेक प्रकार के चावलो तथा कुछ उ०-स्वामी जी बसत भवना जागन बैठे पासण मांड बीजो से तैयार की जाती है और प्राय लेई के रूप मे होती वाली।-रामानद०, पृ० १४। ५ किमी अन्न की वाल है। कपडो मे इसकी सहायता से कडापन या करारापन लाया मे मे दाने झाडना। उ०-साँचो मो लिखवार कहावै । जाता है। मॉडि माँडि खरिहान क्रोध को फोता भजन भरावै । क्रि० प्र०-देना ।—लगाना । -मूर ( शब्द०)। ६ मचाना । ठानना। जर्म, युद्ध माँडौल-सञ्ज्ञा पुं० [स० माण्डत या मण्डप ] विवाह का मडप । मांडना । और मत्र कुछ उर जनि प्रानो आजु सुकपि रन उ०-मॉडो गडो रगमदिर के आंगन वेद विधाना । ता ऊपर माँडाह ।—सूर (शब्द०)। ६ धरना । लगाना । करना। जरकसी रज्जु अरु मरिण मय विशद विताना ।- रघुराज उ० - साप काचली छोडे बीस ही न छांडे उदक मे वक ध्यान (शब्द०)। माडे । -दविखनी०, पृ० ३५। ७ लेना। उठाना। उ० - मॉड्योपुर-छा पुं० [ स० माण्प ] १ प्रागतुक लोगो के ठहरने का जनम जनम अनते नहिं जाँचो फिर नहिं मांडो झोली जू । स्थान । अतिथिशाला। २ विवाहादि के घर मे वह स्थान -~-नद० न०, पृ० ३३७ । ६ स्थिर करना। स्थिरतापूर्वक जहाँ सपूर्ण श्राहूत देवताओ का स्थापन किया जाता है। ३ रखना। उ०-कायर मेरी ताकवं सूग मांड पाँव । —कबीर विवाह का मडप । मंडवा। उ०-पाए नाथ द्वारिका नीके सा० मा, भा०१,पृ०२६ । रच्यो मांड्यो छाय । व्याह केलि विधि रची मकल सुख सौंज मांडनी-मर स्त्री० [ में मण्डन ] मजाफ । मग्जी। गोट । हाशिया । गनी नहिं जाय । —सूर (शब्द०)। किनारा। उ०-योगया नील मांडनी रानी निरखत नैन चुराई। सूर (शब्द०)। (ख) नील कचुकी मॉडनि लाल । माँढाई-सञ्ज्ञा पु० [हिं०] दे० 'मांडव' । उ०- नयरी नइ माँढे भुजनि नवइ अाभूपण माल ।—सूर (शब्द॰) । वीचईं । हस्ती पायक अत न पार ।-बी० रासो, पृ० १० । मॉडहा - सइ पु० [सं० मण्डपा, हिं० माडवा ] विवाह का मांडव । माण-सञ्ज्ञा पुं॰ [ सं० मान ] दे० 'मान' । विवाहमहप। उ० - ए च्यारइ वेद उचरइ, चउरी दीसउ 'माणस-सज्ञा पु० [सं० मानुष, प्रा० मानुस ] दे॰ 'मानुस' । मॉडहा माहि ।-बी० रामो, पृ० २१ । उ.-दादू सतगुरु पसु मानस कर, माणस थे सिध सोइ ।- मांडली-सझा स्त्री॰ [ म मडलो ] बैठक । उ० खेलाँ मेल्ह्या दादू०, पृ०३ मांडली । बइम माहि मोहेउ छइ गइ ।-बी० रासो, पृ० ३ । मांतर - वि० [ म० मत्त ] १ उन्मत्त । मस्त । मत्त । वेमुध । २. माड़व- पु० [ म. मण्डप ] विवाह आदि अथवा दूसरे शुभ दीवाना । पागल । कृत्यो के लिये छाया हुया मडप । उ० (क) पालेहि वांस के माँत-वि० [हिं० माता या स० मन्द ] १ बेरोनक । उदास । माटव मनिगन पूरन हो । मोतिन झालर लागि चहूं दिमि भूलन बदरग । उ०-पडा मात गोरख कर चेला। जिय तन छाँडि हो।—तुलसी (शब्द॰) । (ख) मुनिगन कटेउ नृप मांडव छावन स्वर्ग कहं खेला । —जायसी (शब्द॰) । २ हारा हुआ। गावहिं गीत सुआयिन वाज बधावन । —तुलसी (शब्द॰) । पराजित | मात । माँड़ा पुं० [म. मण्ड ) अांख का एक रोग जिसमे उमके ऊपरी पर्दे के प्रदर महीन झिल्ली सी पड जाती है । मॉतना+-क्रि० अ० [म० मत्त + हिं० ना (प्रत्य०) ] मतवाला विशेष—इस झिली का रंग चावल के माड के समान होता है। होना । उन्मत्त होना । पागल होना । यह औपधोपचार या शस्त्रक्रिया से निकाला भी जाता है । माता-वि० [सं० मत्त ] [ वि० सी० माती ] मतवाला । उन्मत्त । माँडा- पुं० । स० मण्डप | मटप । मंडवा । उ०—(क) पाठ पहर अमला रा माता हेलो देता डोलो।- मांडा-मना पुं० [हिं० मोडना (= गूधना)] १ एक प्रकार की घनानद, पृ ४४५। (ख) प्रौ कलवारि प्रेम मधु माती।- बहुत पतली रोटी जो मैदे की होती है और घो मे पकती है। जायसी ग्र० (गुप्त), पृ० २४६ ।। लुचई। उ०--(क) मुर्दा दोजख मे जाय या विहिश्त मे, हमे माँया-सज्ञा पुं० [ सं० मस्तक ] माथा । सिर । उ०-- रावन चहा तो अपने हलुवे माँडे से काम है । ( कहावत ) । (ख) काकी सौहं होइ हेरा उतरि गए दम माथ।-जायसी ग्र०, भूख गई वयारि भख विना दूध घृत माँडे ।—सूर (शब्द॰) । (गुप्त), पृ० २२६ । २ एक प्रकार की रोटी जो तवे पर थोडा घी लगाकर पकाई माँथवधन-मज्ञा पुं० [हिं० माथ+ बधन ] १ सूत या ऊन की डोरी जाती है। परांठा । उलटा। जिससे स्त्रियां सिर के बाल वांधती है। परांदा। चवकी। माँडी-या स्त्री० [ मं० मण्ड ] १ भात का पसावन । पीच । मांड । चंवरी। २ सिर पर लपेटने या बांधने का कपडा । जैसे, २ कपडे या सूत के ऊपर चढाया जानेवाला कलफ जो भिन्न पगडी, साफा आदि। ८-१३ -स