पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/१३

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है। इसको संकेत यह भी हो सकता है कि 'यस्क' के पूर्ववर्ती नामक विशाल ग्रथ बनाया था। इसमें मराठी के भी अनेक पर्यायशब्द प्राचार्यों ने निघटू' के लिये उपयुक्त चतुरग लक्षणे आवश्यक मान लिया उपलब्ध हैं।) था, और उस प्रकार के अनेक ग्रंथ उस समय वर्तमान थे । | सस्कृत कोश: प्राचीन (अमरकोश पूर्ववर्ती) निश्चय ही १००० ई० पू० के पहले से लेकर ई० पू० ६०० या ७०० तक अनेक वैदिक निघट निर्मित हो चुके थे। विरल और वैदिक निघकोशो श्रौर ‘निरुक्त ग्रयो' के अनतर संस्कृत के प्राचीन कठिन पान्दो तथा पर्यायवाची नामो सौर प्रख्यात एव अव्ययो और मध्यकालीन कोमा में उपलब्ध होते हैं। इस संबध में 'मेडानल्ड' ने का बडे श्रम के साथ प्राचार्यों ने अर्थनिर्देशपूर्वक सग्रह किया था। माना है वि सम् त कोशों की परंपरा का उद्भव ( निघट ग्रयों के भारतीय कोशविद्या को यह प्राचीनतम उपलब्ध रूप यद्यपि गद्य वद्ध अनतर ) धातुपाठी अंदर गणपठो में हुआ है। पाणिनीय अष्टाध्यायी था, तथापि परवर्ती पद्यवद्ध कोशों के लिये--विशेषत पर्यायवाची के पूरक परिशिष्ट रूप में धातुश्रो र गण शब्दों का व्याकरणोपयोगी कोशो का--पथप्रदर्शक और प्रेरणादायक रहा। अमरकोश' जैसे संग्रह-इन उपर्युक्त पाठ में हुआ। पर उनमें अर्थनिर्देश न होने के ग्रंथ पर भी जहाँ एक अोर निघकार की पर्यायवाची शैली का व्यापक कारण उन्हें केवल चातुसूची र गणसूची कहना अधिक सुमीप्रभाव दिखाई देता है वहीं दूसरी ओर 'निरक्त' के कात्रय का चीन होगा। प्रभाव भी ‘त्रिकाडकोश' या 'अमरकोश' पर कदाचित् पडा । विषय अागे चलकर सस्कृत के अधिकाश कोशो में जिस प्रकार रचनाकी दष्टि से न सही, पर की गदद और 'तीन की सख्या' इन दोनों विधान अौर अर्यनिर्देषा नी का विफीस इशा है वह धातुपाठ या अशा में अमर सिंह ने प्रभाव ग्रहण किया है। तो अचर्य नहीं । गणगाठ की शैली से पूर्णन पृथक है। निघट्ट ग्रयो से इनका स्वरूप भी कुछ भिन्न है । निघटो में वैदिक शब्दों का संग्रह होता था । निरुत के प्रारम मे ही वहा गया है---‘समम्निाय समानात । उनमे क्रियापदो, नामपदो और अव्ययो का भी संकलन किया जाता से ध्याध्यातव्य । तदिम समाम्नाय निघण्टव इत्याचक्षते ।' अर्थात् समाम्नाय की ( जो गुरुपरपरा से वैदिको द्वारा प्राप्त किया गया है। था। परतु सस्कृत को पदो में मुख्यत घेवल नामपदी र अव्ययो का उसकी ) व्याख्या आवश्यक है। इसी को ‘निधटव' (निघ) वाहते है । | ही संग्रह हुम्रो । है। इस शब्द का विकास निगतव में हुआ है। सभवत अनेक 'निरत्त' के समान अथवा पाली के 'महाव्युत्पत्ति' कोश की तरह ‘निघटु' थे, इसी से बहुवचन में प्रयोग हैं। प्रथम तीन अध्याय में इसमें व्युत्पत्तिनिर्देश नहीं है। वैदिक निघटुओ मे संगृहीत शब्दों का 'नामपदों' र 'ख्यातपदो' की पर्यायवद्ध सूची है। चौथे अध्याय में सवध प्राय विशिष्ट प्रथो से (ऋग्वेदसहिता या अथर्वसहिती का क्लिप्ट वैदिक शब्द हैं अपने तत्सम रूप में प्रौर ५वे मे देवतावाचक शब्दो अयर्वनिघट् ) होता था। इनकी रचना गद्य में होती थीं। परतु का संग्रह है। मस्कृत कोश मुख्यत पद्यात्मक हैं और प्रमुख रूप से उनमे अनुप्टुप् छद का योग (अभिघानरत्नमाला आदि को छोडकर) हुआ है । संस्कृत कोशों लगभग दो महस्र वर्षों बाद १८वीं शती मे "भास्करराय' नामक द्वारा पद और अर्थ का परिचय कराया गया है 'धनजय', 'धरणी' एक महाविद्वान ने 'वैदिक कोश' का निर्माण किया था । उक्त कोश और 'महेश्वर' आदि कोणों के निर्माण का उद्देश्य या सभवत' में वैदिक 'निघट के शव्दो श्रीर उनके अर्थों का पद्यबद्ध संयोजन महत्वपूर्ण विरलप्रयुक्त और कविजनोपयोगी शब्दों का संग्रह बनाना।। किया गया है। | वैदिक निघट्यो की परपरा--कदाचित् आगे चलकर लुप्त हो । सस्कृत कोशो का ऐतिहासिक सिंहावलोकन करने से हमें इस विपय की सामान्य जानकारी प्राप्त हो सकती है। इस संबंध में विद्वानो गई । परतु अथर्ववेद के उपवेद--श्रायुर्वेद--में इस नाम के ग्रथो की । ने 'अमरसिंह द्वारा रचित और सर्वाधिक लोकप्रिय-'नामलिंगानुशासन परपरा चलती रही। आयुर्वेद के परपराकथित अवतारी प्राचार्य ( अमरकोश ) को केंद्र में रख कर उसी के माधार पर सस्कृत कोमो ‘धन्वतरि' द्वारा विरचित एक 'धन्वतरि निध' है । किवदती को तीन कालखंडो में विभाजित किया है--(१) अमरकोशअनुसारी श्लोक में 'विक्रमादित्य' के नवरत्नों में इनका नाम सर्वप्रथम पूर्ववर्ती सस्कृत कोश, ( २ ) अमरकोशकाल तथा ( ३ ) अमरकोशआता है । 'अमरकोश' की क्षीरस्वामीकृत टीका (वनौषधिवर्ग-श्लोक । परवर्ती सम्कृत कोश । । ५०) के अनुसार घन्वतरि को 'अमरसिंह से प्राचीन माना जाता है। संभवत चतुर्थ शतक से पूर्व इनवा काल रहा होगा । नौ अध्याय 'अमरिसंह' के पूर्ववर्ती कोशों को उनके नामलिंगानुशासन' के इस ग्रंथ में पारिभाषिक शब्दो के अर्थ के साथ साथ उनके गुण में उल्लेख नहीं मिलता है। परंतु 'समाहृयान्यतन्त्राणि' के ध्वन्यायँ दोप का भी इसमे वर्णन है एलोकबद्ध यह 'वैद्यकनिंघट'--सभवत का आधार लेकर 'अमरकोश' की रचना में पूर्ववर्ती कोशों के उपयोग का परवर्ती तद्वर्गीय ग्रंथो को प्रेरणाधार रहा। ‘माधवनिदान' ( प्रसिद्ध अनुमान किया जा सकता है । 'अमरकोश' की एक टीका में लव्ध 'कात्य वैद्यक ग्रंथ ) के निर्माता माधवकर (लगभग माठवीं नवी माती) द्वारा शब्द के पाधार पर 'कात्य' या नात्यायन' नामक 'अमर'-पूर्ववर्ती *पययरत्नमाला' नाम मै एक वैद्यक कोश भी रचित माना जाता है। कोशकार को मीर पाठातर के आधार पर व्याहि नामक कोशकार 'हेमचंद्र ने भी निघशप' नामक ग्रंथ का निर्माण किया था। १८वी का अनुमान होता है । 'अमर का' के टीकाकार क्षीरस्वामी' के आधार माती के उत्तरार्ध में अनेकणास्त्र विद्याविशारद काप्ठा नगरीराज पर 'धन्वतरि' के 'घन्वतरिनिधटू' नामक वैद्यक निघट्ट ( कोश ) का 'गदनपाल' ने १७७४ ई० में ‘मदनपाल निघट्ट' (या ‘मदनपान विनोद' सकेत मिलती है। 'महाराष्ट्र शब्दकोश' की भूमिका में भागरि' के