पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/१४

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  • शि को भी--जिसका नाम 'त्निकांडकीश' या--'अमर'-पूर्ववर्ती बताया करनेवाला है, और अतिम वर्ग लिंगादिसग्रह कहा गया हैं एवं गया है। यह कोमा दक्षिण भारत की एक ग्रप्रसूची में आज भी उसमे शास्त्रीय और व्याकरण नियमानुसारी आधार को लेकर लिग उल्लिखित है। 'रति' या 'रतिदेव' और 'रसभ' या 'रसमपाल' को का अनुशासन मुख्य रूप से तथा गौण रूप से अन्य अनुक्त-लिंगभी (महाराष्ट्र शब्दकोप की भूमिका के आधार पर) 'अमर'-पूर्ववर्ती निर्देश की क्रमबद्ध पद्धति वताई गई हैं। कोशकार कहा गया है ।

यह कोशाग्नथ मुख्यत पर्यायवाची ही है। फिर भी तृतीय कोड 'सर्वानद' ने 'अमरकोश की अपनी टीका में बताया है कि व्याडि' के द्वारा, जिसे हम अधुनिक पदावली में परिशिष्टाश कह सकते हैं, और 'वररुचि' अादि के कोषों में केवल लिग का संग्रह है और इस कोश को पूर्ण और व्यापक तथा उपयोगी बनाया गया है । 'त्रिकाह' एव ‘उत्पदिनी' में केवल मा ब्दों का । परतु 'मरकोश' में दोनों की विणेपताएँ एकन्न समिलित हैं । इस प्रकार *व्याडि', 'वररुचि' अमरफोरापरवर्ती अमरपरवर्ती काल में संस्कृत कोशों की अनेक ( या कात्य ) भागरि' और 'धन्वंतरि' प्रादि अनेक कोणकारों का । विधाएँ लक्षित होती हैं--कुछ कोश मुख्यत. केवल नानार्थ कोश के क्षीरस्वामी ने अमर-पूर्ववर्ती होकारो और ‘क्षिकाह', 'उत्पलिनी', रूप में हमारे सामने आते हैं, कुछ को समानार्थक शब्दकोश और 'रत्नकोश' और 'माला' आदि अमर-पूर्ववर्ती को ग्रथो का परिचय मला है जिस पर कुछ को शत पर्यायवाची कोश' कह सकते हैं। दिया है। इन विधामो के अतिरिक्त ऐसे कोश भी मिलते हैं जिनमे क्रमश अमरकोशकाल (रचनाकाल-लगभग चौथी पाँचवी शती) एकाक्षर, द्वैय्क्षर, यक्षर और नानाक्षर शब्दो का योजनाबद्ध रूप से सकलन हुआ है । 'द्विरूप' कोश भी बने हैं। अमरकोश की महत्ता के कुछ कारण हैं। यद्यपि तत्पूर्ववर्ती कोश इनके अरिरिक्त 'पुरुषोत्तमदेव' का ग्रंथ 'वर्णदेशना' है, जिसमें (“धन्वंतरिनिपटू' तथा पाहूलिपिसूची में उल्लिखित एकाध अन्य । ग्रथ लिखावट में स्वल्पाघिक भेद के कारण होनेवाले वर्णविन्यास सवधी को छोडकर) आज उपलब्ध नहीं है तथापि यह अनुमान किया जाता वैरूप्य का परिचय मिलता है। इन्हीं का एक कोश ‘विकाडकोष' भी है कि प्राचीन कोशों में दो प्रकार की शैलियाँ (कदाचित्, प्रचलित थी-- हैं जिसमें अमरसिंह के कोश मे छूटे हुए, पर तद्युगीन भाप में (१) कुछ कोश (समवत ) नाम (सशाओं) का ही और कुछ प्रचलित, शब्दो का संग्रह है। पुरुषोत्तमदेव' की ही एक रचना लिंगो का ही निर्देश करते थे । (कदाचित् द एफ कोण धातुसूची भी “हारावल।' भी है, जिसमें विरल प्रयोगवाले 'एकार्थ’ और ‘अनेकार्थ' प्रस्तुत करते थे ।) इन्हें नामत (नामपारायणात्मक) तथा लिगतन्न शब्दों के दो भाग हैं । स्वय लेखक ने लिखा है कि इस ग्रंथ में अत्यत (लिंगपारायणात्मक) कहा जाता था। द्वितीय विघा के कोशो में लिंगो विरल शब्दों का संग्र थन हुआ है। का विवेचनात्मक निर्देशन ही मुख्य विषय रहता था। पर 'अमरसिंह ने अपने कोश में दोनों को एक साथ अत्यत प्रौढ सयोजन और 'अमरसिंह' के अनतर कोशकारों और कोशग्रथो पर अमरकोश विवेचन किया है । पर्भ में ही उन्होने तीसरे से पाँचवें श्लोक तक की पर्याप्त प्रभाव दिखाई देता है। पर्यायवाची कोश बहुत कुछ अपने कोश में प्रयुक्त नियमों और पद्धति का स्पष्ट निर्देश किया है। अमरकोश से प्रभाव ग्रहण कर लिखे गए। 'नानार्थ' या 'अनेकार्थ इनके माधार पर प्राब्वार्थ के साथ ही साथ लिंग का निर्णय भी को भी अमरकाश के नानार्थ वग के अधार पर प्राय हमखी होता है। विस्तारमान रहे हैं । विश्वप्रकाश' कोश में अवश्य कुछ अधिक वैशिष्ट्य तीन काडों के इस ग्रंथ में क्रमश दस, दस और पांच वर्ग हैं। उपक्रम दिखाई देता है। वह विलक्षण ‘नानार्थकोश' हैं जो अनेक अध्यायों में भाग में निर्दिष्ट पद्धति के अनुसार नामपदों के लिग का अद्यत निर्देश विभक्त हैं। प्रत्येक अध्याय मे एकाक्षर, द्वभक्षर अदि क्रम से सप्ताक्षर मिपा गया है। इसी कारण इसका अभिघन 'नामलिंगानशासन' है। शब्दों तक का संकलन है। 'कवाक', 'कहिक', अादि भी अध्यायों के इसकी विशिष्टता का परिचय देते हुए स्वय ग्रंथकार ने बताया है नाम: नाम है । 'अमरकौमा' का तरह ही शब्द के अतिम अनुसार कात, कि अन्य तत्रो से विवेच्य विषय का समाहार करते हुए सक्षिप्त रूप खात अादि रूप में शब्दों का अनुक्रम हैं। उनका ‘शब्द-भेद-प्रकाशिका में और प्रतिसंस्कार द्वारा उत्कृष्ट रूप से वर्गों में विभक्त---इस 'नाम नामक ग्रंथ भी वस्तुत इसी को अन्य परिशिष्ट है। इसके चार अध्यायों में क्रमश 'शब्दभेद', 'वकारभेद', 'झममैद' घर लिंगानुशासन' को पूर्ण बनाने का प्रयास हुआ है। यही इसकी विशेषता है । ‘लिंगभेद' नामक चार विभिन्न भेद हैं । ऐतिहासिक क्रम से सस्कृत कोशो । का निर्देश नीचे किया जा रहा है। सुव्यवस्थित पद्धति के अनुसार काडों और वर्गों का विभाजन शाश्वत का अनेकार्थसमुच्चय नामक नानार्थ कोण हैं। समय पूर्णत किया गया है। वस्तुत देखा जाय तो प्रथम दो कार्ड इस कोश का निश्चित न होने पर भी ६०० ई० के आसपास के काल में इसकी पर्यायवाची स्वरूप प्रस्तुत करते हैं और तृतीय कोर्ट में नाना। रचना मानी जाती है । इसी को पावतकोश भी कहते हैं। 'अमरकोश' प्रकृति के इतर नमिपद का स7 है। विशेष्यनिघ्न वर्ग में विशेष्यो के संक्षिप्त नानार्थ वर्ग का यह विस्तार जान पडता है। ८०० अनुष्टुप नुसारी लिंगादि में प्रयुक्त होनेवाले नामपदो का संग्रह है। ‘सकीर्ण वर्ग में प्रकृति प्रत्यादि के अर्थं द्वारा लिंग की ऊहा का विवेचन' हुअा । छदा के इस काश का छह भागों में विभक्त किया गया है। अद्य तीन है।'नानार्थ' वर्ग में नानार्थं नामो को 'कात, खात' अादि क्रम के भागों में क्रमवद्ध रूप से शब्द के अर्थ क्रम से चार चरणो (पूरे श्लोक}, अनुसार संग्रह किया गया है।' धतुर्थ वर्ग अध्यय शब्दो को सकलित दो घेरणी ( माधे श्लोक ), मोर एक चरण में दिए गए हैं। नामक ग्रंथ है। यही