पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/१५

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चौथे भाग में एक एक चरण में नानार्थबोधक शब्द हैं और पचम तथा है--जिसके अतिरिक्त, व्युत्पत्तिरलाकर ( देवगिरगणि ) पौर 'सारोद्धार ( वल्लभगणि ) प्रसिद्ध टीकाएँ हैं। इसमें नाना छदो पष्ठ विभागो में अव्यय हैं। मे १५४२ श्लोक है । दूसरा कोश ‘अनेकार्थसग्रह' ( श्लो० सं० १८२६) भट्ट हलायध ( समय लगभग १० वीं शताब्दी ई० ) के कोश को है जो छह कोडों में है । एकाक्षर, यक्षर, यक्षर आदि के क्रम से नाम अभिधानरत्नमाला है, पर हलायुधकोण' नाम से यह अधिक कड़ियोजना है। अंत में परिशिष्ट का अव्ययों से संबद्ध है। प्रसिद्ध है। इसके पाँच काह | स्वर, भमि, पाताल, सामान्य और प्रत्येक कार्ड में दो प्रकार की मददमयोजनाएं हैं-(१) प्रथमाअनेकार्थ ) है। प्रथम चार पययिवाची काड हैं , पचम में अनेकार्थके तयाक्षरानुसारी और ( २) 'अतिमाक्षरानुसारी'। 'देशीनाममाला' प्राकृत अव्ययशब्द सगृहीत हैं। इसमें पूर्वकोशकारो के रूप में अमरदत्त का ( अौर अशत अपभ्रश का भी ) शब्दकोश है जिसका प्राधार घररुचि, भागरि और वौपालित के नाम पद्धत है। रूपभेद से लिंग- 'पाइलच्छी नाममाला है।' वोधन की प्रक्रिया अपनाई गई है। ६०० श्लोको के इस अथ पर महेश्वर ( ११११ ई० ) के दो कोश ( १ ) विश्वप्रकाश और अमरकोश का पर्याप्त प्रभाव जान पडता है। पिंगलसूत्र' की टीका के अतिरिक्त कविरहस्य' भी इनका रचित है जिसम 'हुलायध' ने ( २ ) शब्दभेदप्रकाश हैं। प्रथम नानार्थकोश है। जिसकी शब्दक्रमधातुमों के लट्लकार के भिन्न भिन्न रूपों का विशदीकरण भी योजना अमरकोश के समान अत्याक्षरान मारी हैं। इसके अध्यायो किया है। में एकाक्षर से लेकर 'सप्ताक्षर' तक के घाब्दो का क्रमिक संग्रह है। तदनसार 'कैकक' अादि अध्याय भी हैं । अत में प्रत्यय भी सगृहीत हैं। यादवप्रकाश ( समय १०५५ से १३३७ के मध्ये ) का वैजयती, स्त्री', 'पुम्' आदि शब्दों के द्वारा नहीं अपितु माग्दो की पुनरुक्ति द्वारा कोश अयत प्रसिद्ध भी है और महत्वपूर्ण भी । इसकी कुछ अपनी लिगनिर्देश किया गया है। इसमें अनेक पूर्ववर्ती कोशकारों के नाम-- विशेषताएं हैं। यह बहद।कार भी है और प्रामाणिक भी माना गया भाग)द्र, कात्यायन, साहसक, वाचस्पति, च्याडि, विश्वरूप, अमर, है। इसकी सर्वप्रमुख विशेषता है। नानार्थ भाग की अादिवर्ण मुगल, शृभाग, शुभाक गोपालत ( वोपलिन ) और भागरि--निदिष्ट क्रमानुसारी वर्णक्रमयौजना जिसमें आधुनिक कोशों की अकारादि- हैं। इसके हैं । इस कोश की प्रसिद्धि, अत्यत शोघ्र हो गई थी क्योकि 'सर्वानद' और वनक्रमपद्धति का वीज दृष्टिगोचर होता है। परंतु कठोरता और ‘मचद्र' ने इनका उल्लेख किया है। इसे 'विश्वकोश' भी अधिकत पूर्णता के साथ इस नियम का पालन नहीं है। केवल प्रथेमाक्षर को कहा जाता हैं । माद्दर्भवप्रकाशिका पस्तुत विश्वप्रकाश का परिशिष्ट आधार लिया गया है--द्वितीय, तृतीय श्रादि अक्षर या ध्वनि है जिसमें शब्दभेद, वकारभेद, लिगमेद आदि हैं। का नहीं। इसके दो भाग हैं--( १ ) पर्यायवाची भौर ( २ ) नानार्थक । दोनो ही भाग—अमरकोश की अपेक्षा अधिक सपन्न मंख पडित ( १२ वीं शती ई० ) का अनेकार्थ--१००७ श्लोको हैं। नानार्थ भाग के तीन काहो मे द्वय्क्षर, यशर और शेष शब्दो को का है और अमरकोश एव विश्वरूपकोश के अनुकरण पर बना है। सकलित किया गया है। नानार्थंभाग के काडो का अध्यायविभाग-- ‘भागरि', 'अमर', 'हलायुध', 'शाश्वत' और 'धन्वंतरि के आधारग्रहण उपप्रकरणों में लिंगानुसार (पुल्लिगाध्याय, स्त्रीलिंगाध्याय, नपुसक- १ का उसमे सकेत है । शव्दमयोजना प्रत्याक्षरानुसारी है। लिगाध्याय, अर्यवल्लिगाध्याय और नानालिगाध्याय ) हुआ है । अजयपाल (लगभग १२वी-१३वीं शती के बीच ) के नानार्थसग्रह अतिम चार अध्याय में और भी अनेक विशेपताएँ है। अमरकोश | नामक कोश मे १७३० श्लोक हैं। इसे देखने से जान पडता है कि की परिभाषाएँ सक्षेपीकृत रूप से गृहीत हैं। इसमें कुछ वैदिक शब्द | शाश्वतकोश या अनेकार्यसमुच्चय के ग्राघार पर इसकी रचना की भी संगृहीत हैं । गई है। उन्हीं का अनुकरण भी इसमे भासता है। प्रत्येक अभ्ययि के अत मे अव्यय शब्द है। धनंजय ( ई० १२ वी शताब्दी उत्तरघ के हेमचद्र--सस्कृत के मध्यकालीन कोशकारों में हेमचंद्र का नाम विशेष आसपास अनुमानित ) की नाममाला नामक कोय कृति हैं। यह महत्व रखता है। वे महापडित थे और 'कालिकालसर्वज्ञ' कहे जाते थे । लघुकोश है । नाममाला नाम के अनेक कोशग्रंथ मिलते हैं । इसमे केवल वे कवि थे, काव्यशास्त्र के प्राचार्य थे, योगशास्त्रममे थे, जैनधर्म र २०० श्लोक है। कुछ पडिलिपियों में नानार्य शब्द नहीं है पर एक दर्शन के प्रकार्ड विद्वान थे, टीकाकार थे और महान् कोशकार भी थे। में तत्सवद्ध ५० श्लोक हैं। वे जहाँ एक अोर नानाशास्त्रपारंगत प्राचार्य थे वहीं दूसरी ओर नाना । भाषाओं के मर्मज्ञ, उनके व्यकिरणकार एव अनेकभापाकोशकार पुरुषोत्तमदेय ( समय ११५९ ई० के पूर्व )-सस्कृति में पाँच कोश भी थे ( समय १०८८ से ११७२ ई० ) । संस्कृत में अनेक कोशों के निर्माता माने गए हैं--( १ ) विकाडकोश, ( २ ) हारावली, (३) की रचना के साथ साथ प्राकृत-अपभ्रश-कोश भी ( देशीनाममाला ) वर्णदेशना,( ४ ) एकाक्षरकोण और ( ५ ) द्विरूपको । 'अमरकोश' उन्होंने संपादित किया। अभिधानचितामणि ( या 'अभिधान- के टीकाकार ‘सर्वानद' ने अपनी टीका में इनके घार को के वचन चितामणिनाममाला ) इनका प्रसिद्ध पर्यायवाची कोश है। छह काडो उद्धृत किए हैं जिससे इनका महत्वपूर्ण कोणकर्तृत्व प्रकट है। के इस कोश का प्रथम का केवल जैन देवो और जैनमत्रीय या ये वौद्ध वैयाकरण थे। 'मायावृत्ति' इनकी, प्रसिद्ध रचनी है। धार्मिक शब्दों से सबद्ध है । देव, मयं, भूमि या तिर्यक, नारक और इन्होंने ‘वाचस्पति' के 'शब्दार्णव', 'व्याडि' को 'उत्पलिनी सामान्य शेप पाँच काड हैं। लगानुशासन' पृघक ग्रंथ ही हैं। विक्रमादित्य' के “संसारावर्त' को अपना प्राधार घोषित किया है। 'अभिघानचितामणि' पर उनकी स्वविरचित 'यशोविजय' टीको 'फेक्त' ग्रंथसूची में नौ अन्य (व्याकरण और कोश के ) ग्रथों को