पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/१६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

- पुरुपौत्तमदेव के नाम से संकेत मिलता है। इनकान्निकोडकोश'--नाम मेदिनी के अनतर के लघको न तो बारंवार उद्धृत हुए हैं और से ही 'ममरकोश' का परिशिष्ट प्रतीत होता है । फलत वहाँ अप्राप्त न पूर्वकोशी के समान प्रमाण रूप में मान्य है। परंतु इनमें कुछ शब्दों का इसमें सकलन है । ( 'अमरकोश' से पूर्व का भी एक ऐसे प्राचीनतर और प्रामाणिक कोणी का उपयोग हुअा है जो 'त्रिकाडकोश' बताया जाता है । पर उससे इसका सबध नही जान आज उपलब्ध नहीं हैं अथवा और अशुद्ध रूप में प्रशत पडता ।) इसमें अनेक छद हैं अौर इसकी टीका भी हुई है । हारावली उपलब्ध हैं । ( १ ) 'जिनभद्र सुरि' का कोण है अपवर्गनाममाला-- में पर्याय शब्दो भीर नानार्थी शब्दों के दो विभाग हैं । श्लोकसंख्या जिसका नाम 'पचव गंपरिहारनाममाला भी है। इनका काल संभवत २७० है। पर्यायवाची विभाग की तीन अपायों--(१) एकश्लोकात्मक १२वीं शताब्दी के आस पास हैं। (२) 'शब्दरत्नप्रदीप' --संभवत यह (२) अर्धश्लोकात्मक तथा (३) पादात्मक--में उपविभाजन हुआ कल्याणमल्ल का शब्दरत्नप्रदीप नामक पाँच काडोंवाली कोश है। (समय है। नानार्थ विभाग में भी--( १ ) अर्ध श्लोक, ( २ ) पादश्लोक लगभग १२९५ ई०)। (३) महीप की शब्दरत्नाकर--कोश है। और एक शब्द में अर्थ दिए गए हैं। इसमें प्राय विरलप्रयोग और जिसके नानार्थ भाव का शीर्षक है--अनेकार्थ या नानार्थतिलक, समय है। अप्रसिद्ध शब्द हैं जबकि विकाडकोश में प्रसिद्ध शब्द । ग्रथकार की लगभग १३७४ ई० । (४) पद्मरागदत्त के कोश का नाम 'भूरिकउक्ति के अनुसार १२ वर्षों में वढे श्रम के साथ इसकी रचना की प्रयोग है। इसका समय लगभग यही है । इस कोण का पर्यायवाची गई है। (१२ मास भी एक पाठ के अनुसार ) । वणदेश ना अपने भाग छोटा है पीर नानार्थ भाग वा । (५) रामेश्वर शर्मा की वग का एक विचित्र अौर गद्यात्मक कोश है । देशभेद, रूढि भेट और शब्दमाला भी ऐसी ही कृति है। (६) १४ वी मातब्दी के विजयनगर भाषाभेद से छ, क्ष या है, इ अथवा है, घ मे होनेवाली भ्राति का । के राजा हरिहरगिरि की रजिसभा में भास्कर अथवा दहाधिनाय अनेक ग्रंथो के आधार पर निराकरण ही इसका उद्देश्य जान पडता थे। उन्होने नानाथरत्नमाला बनाया। (७) अभिधानतन्न का है--'अन्न हि प्रयोग बहुदश्वाना श्रुतिसाघा२ण्यमार्तण गृह्णता निर्माण जटाधर ने किया। (४) 'अनेकार्थ' या नानार्थकमजरी'सुरक्षुरप्राद खकारक्षकारयो सिहशि घानकादी हकारघकारयो ' ' ' 'नामागदसिंह का लघु नानार्थकोश है । ( ६ ) रूपचंद्र की तथ गौड दिलिप साधारण्याद् हिण्डीगुडाकेशादी हुकार-डकारयो रूपमजरी--नाममाला का समय १६वी आती है। (१० ) शारदीय प्रतिय उपजायन्त । अतस्तद्विवेचनाय क्वचिद्धातुपरायणे धातुवृत्ति नाममाला 'हर्षकीति' कृत है ( १६२४ ई० ) । ( ११ ) शब्दरत्नाकर पूजादिए प्रव्यक्तलेखन प्रसिद्धी देशेन धातु प्रत्ययोणादिव्याख्यालेखनेने के कर्ता 'वामनभट्ट वाण' है । ( १२ ) नामसग्रहमाला की रचना क्वचिदाप्तवचनेन अलेपादिदर्शनेन वर्ण देशनेयमारभ्यते । ( इडिया अप्पय दीक्षित ने की है। इनके अतिरिक्त (१३) नामकोश (सहजकीति साफिस केटेलाग, पृ० २९५ ) । 'महापणक', 'महीधर' और 'वररुचि फा (१६२७) और (१४) पचतत्व प्रकाश (१६४४) सामान्य कोश हैं । के बनाए ‘एकाक्षर' कोशों के समान 'पुरुषोत्तमदेव' ने भी एकाक्षर को बनाया जिसमे एक एक अक्षर के शब्दों के अर्थ वणित हैं। कल्पद् कोश केशवकृत है । नानाथर्णबसक्षेपकार 'वे गवस्वामी' से ये द्विरुपकोश भी ७५ श्लोको का लघुकोण है। नैषधकार "श्रीप' भिन्न हैं। यह अथ सस्कृत का वृहत्तम पर्यायवाची कोश है। इसमें ने भी एक द्विरूपकोश लिखा था । नानार्थ का प्रकरण या विभाग नही है। इसमें पर्यायो की संख्या सर्वाधिक है, यथा---पृथ्वी के १६४ तथा अग्नि के ११४ पर्याय केशवस्वामी (समय १२ वी या १३वीं बाताब्दी) एक का नानाथर्णध- इत्यादि । 'मल्लिनाथी' टीका मे उद्घृत वचन के अाधार पर केशव सक्षेप को अपनी शैली के कारण बडा महत्व प्राप्त है । एक एक लिंग के नामक' तृतीय कोशकार भी अनुमानित हैं। तीन स्कधों के इस कोश एकाक्षर से पडक्षर तक के अनेकार्थक शब्दो का क्रमश छह कड़िो मे की लोकसंख्या लगभग चार हजार है। स्कघो के अतर्गत अनेक प्रकार सग्रह है और प्रत्येक़ काड के भी क्रमश स्त्रीलिंग, पुल्लिम, नपुसकलिंग, हैं। लिंगबोध के लिये अनेक संक्षिप्त सकेत हैं। पर्यायो की स्पष्टता वाच्यलिंग तथा नानालिग पाँच पाँच अध्याय हैं। प्रत्येक अध्याय की और पूर्णता के लिये अनेक प्रयोग तथा प्रतिक्रियाएं दी हुई हैं। इसमें हुम्दानुक्रमयोजना में अकारादिवर्णक्रम की सरणि अपनाई गई है। कात्य चाचस्पति, भागुरि, अमर, भगल, साहसांक, महेश और ‘अमरकोश' में अनुपलब्ध शब्द ही प्राय इसमे सकलित हैं। ५८०० । जिनतिम ( सभवत हेमचंद्र ) के नाम उल्लिखित हैं । चतुर्थ श्लोक लोकसख्यक इस बृहन्नानार्थकोश में कुछ नैदिक शब्दों का प्रौर ३० । से नवम अलोक तक---कोश मे विनियुक्त पद्धति का निर्देश किया प्राचीन कोशकारो के नामों का निर्देश है। गया है। रचनाकाल १६६० ६० माना जाता है। फेयावस्यामी के नानार्यार्णव कोश से यह भिन्न है। मेदिनिकर का समय लगभग १४ वी शताब्दी के आसपास या उससे कुछ पूर्ववर्ती काल माना गया है। एक मत से ११७५ ई० के (१६) शब्दरत्नावली के निर्माता मयुरेश हैं ( समय १७वी पूर्व भी इनका समय बताया जाता है। इनके कोश का नाम नानार्थशब्द- शताब्दी )। इनके अतिरिक्त कुछ और भी साधारण परवर्ती कोम कोरा है । पर मेदिनिकोव नाम से वह अधिक विख्यात है । इसकी पद्धति हैं। (१७) कोशकल्पतर--विश्वनाथ; (१८) नानार्यपदपीठिका तथा पौर शैली पर 'विश्वकोण' की रचना का पर्याप्त प्रभाव है। उसके शलगायंचविका–सुजन ( दोनो ही नानार्थ कोण हैं)। इनमे प्रथम अनेक प्रलोक भी यही उद्धृत है। ग्रथाभ के परिभाषात्मक अश में--प्रत्ययजनानुसार कम है और द्वितीय में तान का है जिसमे पर 'अमरकोश' की इतनी गहरी छाप है कि इसमें अमरकोश' के क्रमश एक, दो गौर तीन लिगी के शब्द हैं)। (२०) पर्यायपदमजरी मौक तक शब्द' के खिए गए हैं। इसमें कोई खास विशेषता पौर शब्दार्थमजूषा-प्रसिद्ध फाश हैं। (२१) महेश्वर के पाश का नाम 'पर्यायरत्नमाला' है--संभवतः पर्यायवाची कोण 'विश्वप्रकाश' के निर्माता