पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/१९

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कही मिल जाते है। "शब्दार्णवसनैप' में पर्यायो की प्रवृत्तिमूलक सूक्ष्म गए हैं। इनके नाम भी स्वरूपपरिचायक हैं। 'मिर्जी खाँ' को अर्थच्छाया की भेदपरक व्याख्या भी मिलती है। 'कल्पद्रुकोश' में 'तुफत उल-हिन्द (तुफतुल हिद) 'सरों की खालिघारी’--- लिखित म० म० 'रामावतार शर्मा के कथन से यह भी पता लगता है। अत्यत प्रसिद्ध कोण है ! एक ‘हिंगल कोश' भी बहुत पहले बन चुका कि अतिप्राचीन 'व्याडि' के कोश में कभी कभी अर्थनिर्देशन के लिये है। इनके अतिरिक्त भी अनेक कोश बने । 'नददास' के नाम से व्युत्पत्तिपरक सूचना भी दी जाती रही है। 'नामचिंतामणि' नामक भी एक कोश कहा गया है। 'अमरकोश' के भी सभवत अनेक पद्यानुवाद हुए हैं। | ( ११पाली, प्राकृत और अपभ्रश कोशो में कुछ नवीनता लक्षित । नहीं होती । इतना अवश्य है कि पाली कोपयो में वौद्धमत के पारिभापिका इन ग्र थो के पदर्शन से ज्ञात होता है कि जैसा ऊपर यही भादो का काफी परिचय मिल जाता है और पाली के बहुत से शब्दों | जा चुका है, 'अमर कश' के तथा कभी कभी अन्य को के आधार का अर्थज्ञान भी हो जाता है । 'पाली' का महाव्यपत्यात्मक कोश पर हिंदी के मध्यकालीन पद्यात्मक फोरा बने जो पर्यायवाची, समानार्थी गद्यात्मक हैं। या अनेकार्थक कोण थे। घातुसंग्रह को भी एक कोश-उपर्युक्त धातुमाला | ( १२ ) प्राकृत कोशो में अधिकतः देशी शब्दकोश, और --अतिम वर्णक्रमानुसारी सवलन है। मिज ख' मा क श अनेक दृष्टियो देशी नाममालाएँ हैं। इनमें अव्युत्पन्न माने गए देशी शब्दो का संकलन से नूतन पद्धतियों का निदशन उपस्थित करता है । अपने ढग का है। कुछ मे जैन प्राकृत ग्रंथों के संपर्क से जैन मत के पारिभाषिक यह प्रथम प्रयास कहा गया है। जियाउद्दीन और सुनीतबुमार शब्दो का प्रशिक परिचय मिल जाता है। 'पइअलच्छीनाममाला' घटज्य ने इसकी वडी प्रसपा की है । मध्यकालीन हिंदी भाषा के कोश नामक ग्रंथ में सभबत सामान्य प्राकृत नामपदों का अत्यत लघू पब्दि में शब्दो के श्मसयोजन में नृतन और भापा-वैज्ञानिक दृष्टि या इसमे परिचय दिया गया है, साथ ही साथ शब्दो की विस्तृत व्याख्या भी दी गई संग्रह रहा होगा। है। इसके अतिरिक्त उच्चारण ---लिखित रूप की पैदा। घोलचाल | ( १३ ) अपभ्रश के को श स भवत' पृथक् उपलब्ध नही है । प्राकृत के स्वरूप का अधिक ध्यान रखा गया है। गरीबदास' । कोश सत के देशी शब्दकोणो अथवा देशी नाममाला में ही उनकी पतर्भाव साहित्य के अनेक पारिभ पिक शब्दो का अधकोश है। हिंदी में समझना चाहिए । ‘खुसरो' को कोश भी यद्यपि विशाल नही है तथापि द्विभाषी केश मध्यकालीन हिदी कोश की प्राचीनरूपता के कारण महत्व रखता है । इसी तह 'लल्लूस'ल' का परवर्ती ( १८ ६७ ई० ) अंग्रेजी हिंदी-फारसी केस भी इल्लेखनीय मध्यकाल में विरचित हिदी को शो का उल्लेख मिलता है र है । 'एकाक्षर। कोश', अपचरदनाममाला' आदि अनेक प्रकार के उनका स्वरूप सामने आता है। हिदी ग्रयों के खोजविवरणो में पचासो शब्द संग्रहात्मक कोशों का मी निर्माण हुआ है। कोश ग्रथो के नाम मिलते हैं। इनके अतिरिक्त पोद्दार अभिनदन गथ में हिंदी के मध्यका ल न के शो में प्राचीन वर्गानसारी विभाजन श्री जवाहर लाल चतुर्वेदी ने १४-१५ ऐसे कया के नाम दिए हैं जो के अतिरिक्त घेवल शीर्पकानुसारी विभाजन भी मिलता हैं, जैसे-- खोजविवरणों में नहीं मिले पाए हैं। इससे ऐसा लगता है कि हिंदी साहित्य अथ गो एब्द, 'अथ सदश शब्द' हुत्यादि । म रिदान' के हिगल के मध्यकाल मे और उसके बाद भी छोटे बड़े सैकडो कोण बने थे । कोश के अतर्गत वर्ग पद्धति के साथ साथ अन्य शीपक भी दिए गए उनमे अनेक संभवत लुप्त हो गए। जिनके नाम ज्ञात हैं उनमे भी अनेक हैं। उता का में घर्षको के रूप है ---( १ ) अथ बनस्पतिकाय माह, लुप्त या नष्ट होते जा रहे हैं। हिंदी ग्रथों की खोज करनेवालो को जो (२) दहा, (३) वननाम इत्यादि । इसकी एक अन्य विशेषता कोश उपलब्ध हुए हैं उनमे कतिपय प्रसिद्ध कोश का संक्षिप्त परिचय । | भी है--इद्रियों के अनुसार उपपंक जैसे- 'अथ द्वद्रियानाह, वीदियादिया जा सकता है। नाह, चतुरिद्रियानाह पंचेद्रियानाह ।' पुनश्च जलचरान् पर्चेद्रियानाह' ऐसा जान पड़ता है, इनपर सस्कृत में फोगों से संकलित विषय ---यादि । 'वायुकायमाह' में हुकर वायु से संबद्ध नाना पदाथ की मौर उनकी पद्धति का पर्याप्त प्रभाव पडा है। अधिकाश कोशो ने मुख्य सेन लन है । कही वही पीडा, 'पाताल' आदि उपशीर्षक के अंतर्गत अाधार के रूप में 'अमरकोश' का सहारा लिया। उसकी उपजीव्यता भी उन पब्दिों का संग्रह है जो अपने समाविष्ट नहीं किए जा सके । का उन्होने उल्लेख भी किया है। कभी कभी ( जैसे उमराव कोमा में) में ही कही ऐसा भी है कि पर्यायो र जातिभेदो के लिये दूसरी पद्धति अमरकोश का नाम भी उल्लिखित है। पर कुछ क ोकारो ने ( था अपनाई गई है, जैसे, 'खि' के अंतर्गत तो वक्षो के पर्याय दिए गए कणभरण के लेखक हरिचरण दास ) मेदिनी हेम्कोश आदि से भी हैं और 'सृरत्रिख' नाम के अतर्गत वृक्षो के प्रकार गिनाए गए हैं--- सहायता ली है। 'सुरतर गोरक, सिसण, देवदार, मदार' इत्यादि । इसी क्रम में वे मध्यकालीन कोश-रचना-पद्धति की झलक अग्रेनिदिप्ट कुछ प्रसिद्ध नाम भी हैं जिनमें चौबीस अवतार, अष्टसिद्धि, नवनिधि, सत्ताईस कोणों के नाम देखने से मिल जाती है। 'नाममाला' और 'अनेकार्थमजरी' नक्षत्र छत्तीस शरन्नो शादि के नाम दिए गए हैं। 'नददास के दो कोश मिलते हैं। पद्यनिमित इन कृतियों के नाममात्र हिंदी के मध्यकालीन को ग्रयों में शब्दसमलन का कार्य से इनके स्वरूप का बोध हो जाता है। गरीवदास' का ‘अनगप्रवीध' मुख्यत संस्कृत के अन्य मु छ प्रसिद्ध कोशों के आधार पर हुआ है। इसके १६१५ ई० की रचना वही ज ती है । 'रत्नजीत' ( १७१३ ई० ) के अतिरिक्त भिखारीदास' आदि के साहित्यिक भापाग्रघों से भी शब्द दो शब्द कोश (क) मापददसिधु और (ख) मा पाघातुमाला-बताए सकलित हुए हैं। 'खुसरो' और उनसे प्रभावित कोशो के समय से ही