पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/२१

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संस्कृत ही था । इस प्रकार के कोशो में विशेष रूप में दो उल्लेखनीय ऐच उडरों ने अपनी 'वाचनिका' में इस क श की विशे पता बताते है (१) 'शब्दकल्पद्रुम' और (२) वाचस्पत्य' । हुए कहा है कि "विल्सन" की 'सस्कृत डिक्शनरी' और 'शब्दकपद्म' की अपेक्षा इसका क्षेत्र विस्तृत प्रौर गभीरतर है । साथ ही तत्र, दर्शन। प्रथम कोण---स्या र राजा 'राधकिातदेव वहादुर द्वारा निर्मित शास्त्र, छद शास्त्र और धर्मशास्त्र के ऐसे जाने कितने शब्द है जो ब्दकल्पद्रम" है। इसका प्रकाशन १८२८-१८५८ ६० में हैं। ये बोधलिगक' की संस्कृत-जर्मन डिक्शनरी मे नही हैं। इसमें यह भी इसमें पाणिनिव्याकरण के अनुसार प्रत्येक शब्द की व्युत्पत्ति दी गई बताया गया है कि “पादक द्रुम' का प्रथम सस्करण बैंगला है, माब्दप्रयोग के उदाहरण उद्धत है तथा शब्दार्थ सूचक कोश या लिपि में हुआ था। उसे ममय के उपलब्ध कोशों में अनुपलब्ध सैकडो इतर प्रमाण के समर्थन द्वारा अर्थनिर्देश किया गया है। पर्याय हजारो शब्द इसमे सवलिद्र हैं। सामान्य वैदिक शब्द तो हैं। भी दिए गए हैं। धातुग्रो से व्युत्पन्न क्रियापदो के उद हरण भी दिए ही साथ ही ऐसे भी अनेक वैदिक प्राब्द है जो तत्कालीन गए है । पदोदाहरण अादि भी हैं। कुछ थोडे अतिप्रचलित वैदिक शब्दकोशो में अप्राप्य हैं । षड्दर्शनों के अतिरिक्त चार्वाक, माध्यमिक, शब्दों के अतिरिक्त शेप नहीं हैं। इब्दिों की विस्तृत व्याख्या में योगाचार, वैभाषिक, सौत्रात्रि क, अर्हत, रामानुज, भाव, पाशुपत, मैव, दर्शन, पुराण, वैद्यक, धर्मशास्त्र आदि नाना प्रकारों के लथे लबे प्रत्यभिज्ञा, रसेश्वर आदि अल्पलोकप्रिय धर्मानो के पारिभापिक शब्दो उद्धरण भी दिए गए हैं । तत्र मत्र, शास्त्र, स्तोत्र प्राधि से उद्धृत का भी इसमे समावेण मिलता है। पुराणों और उपपुराणो से सगृहीत करते हुए अनेक सपूर्ण स्तं', तात्विक मत्र आदि के भी विस्तृत पुतिन राज ग्रो का इतिहास तथा प्रत्लयुगीन भारतीय भूगोल के अश उद्धरित हैं। ज्योतिषशास्त्र और भारतीय विद्याश्रो के पारि भी इसमें निर्देश हुम्रा है। चिकित्साशास्त्र के पारिभापिक शब्दों और भाषिक शब्दों का भी तद्विद्याविशेषज्ञों के सहयोग से सप्रमाण अन्य विवरणों का भी विस्तृत निर्देश किया गया है । ज्योतिष--गणित, विवरण दिया गया है। इस कोश की रचनापरिपाटी के विषय में भी और फलित-के पारिभापिक शब्द भी हैं । यद्यपि वैदिक घाब्दो के विस्तृत वक्तय दिया गया है। उन कोशो की सूची भी दी गई है जो संकलन सपादन को कोइकार ने अपने इस कोश की विशेष महत्ता बताई उपलब्ध थे और जिनसे शब्दमग्रह किया गया है। साथ ही विभिन्न है तथापि बहुत से वैदिक शब्द छट 'मी गए हैं और बहुमख्यक वैदिक कोशों में उल्लिखित पर अनुपलब्घ कोशो अथवा कोश कारों के नाम भी १1०दो की व्युत्पत्ति और उनके अर्थ स्वकल्पित भी हैं । ‘रायवोथलिग्क' भूमिका में दिए गए हैं। लेखक स्वयमपि सस्कृत वैदुष्य के अतिरिक्त के वृहत्सस्मृ३' शब्दकोश' के उपयोग का भी काफी प्रयत्न किया बँगला, हिदी, अरबी, फारसी, अग्रेजी आदि अनेक भापा को अच्छी गया है । जानकार था। कहने का तात्पर्य यह है कि इस कोश मे---जो सात खंडों में विर मक्षेप में हम कह सकते हैं कि 'वाचस्पत्यम्' की रचना द्वारा पूर्वोक्त चित है--- यथाराभव समस्त उपलब्ध संस्कृत साहित्य के वाहमये का। ‘मा व्दकल्पद्रम' का एक ऐसा परिवधते और अपेक्षाकृत बृहत्तर सस्करण उपयोग किया गया है। इसके अतिरिक्त अत में परिशिष्ट भी दिया सामने आया जो कि रचनापद्धति की दृष्टि से अधिकांश बालों के गया है जो अत्यत महत्वपूर्ण है। इस प्रकार ऐतिहासिक दृष्टि से 'शब्दकल्पद्रुम' के पायाम को व्यापक और पूर्ण बनाने की चेष्टा करता भारतीय-कोश रचना के विकासक्रम में इसे विशिष्ट को कहा जा हैं। ‘तक वाचस्पति' ने निश्चय ही जितना परिश्रम किया वह् असामान्य नकता है। यह पूर्णत सस्कृत का एकमापीय कोश है । परवर्ती सस्कृत है। उनके गंभीर ज्ञान, तलम्पर्शी मनीषा और व्यापक वैदुष्य का इसमे कोशों पर ही नहीं, भारतीय भाषा के सभी कोशो पर इसका प्रभाव अद्भुत उन्मेष दिखाई देता है। 'शब्दकल्पद्रुम' की अधिारपीठिका =-व्यापक रूप से--पडेतो रहा है। पाकर भी ग्रंथ कार ने कोशकला को शब्दकल्पद्रुम' की पौली में काफी यह कोण विशुद्ध माव्दकोश नही है, वरन् अनेक प्रकार के कोश व्यापक बनाया। का---पब्दिार्थकोश, पर्यायकोश, ज्ञानकोश और विश्वकोश की-समिश्रित महाकोश है। इनमें बहुविधीय उद्धरण, उदाहरण, प्रमाण, व्याख्या 'शब्दकल्पद्रुम की अपेक्षा इसमे एक और विशेषता लक्षित होती पौर विधिविधान एव पद्धतियों का परिचय दिया गया हैं। इसमें है । ‘शब्दकल्पद्रम' में 'पद' सुवेत ति त दिए गए हैं। प्रथमा एकचन गृहीत शब्द 'पद' हैं, सुबततिङ त हैं, प्रातिपदिक या धातु नहीं। के रूप को कोश मे पायेय शब्द का स्थान दिया गया है । परतू ‘वाचस्पत्यम्' में दिए गए शब्द 'पद' न होकर ‘प्रातिपदिक' अथवा 'धातुसुखानदनाथ ने भी चार जिल्दों में एक बृहदाकार' सस्कृतकोश । प्रागरा और उदयपुर से ( ई० १८७३-८३ मे ) प्रकाशित किया । रूप में उपन्यस्त हैं। वैसे सामान्य दृष्टि से--रचनाविधान की पद्धति जिसपर “शब्दकल्पदृन' का पर्याप्त प्रभाव है। के विचार से---‘वाचस्प 'यम्' को 'शब्दकल्पद्रुम' को विकसित रूप कहा जा सकता है। 'विल्सन' और 'मोनियर विलियम्स' के कोशों द्वारा इम प्रकृति पा सरा शब्दकोश वाचस्पत्यम' है, जिसका निर्माण अर्थ चोध, शब्दार्थ ज्ञान एवं शब्दप्रयोग की सूचना तथा व्याख्याअनेक वर्षों में सपन्न हुआ। । पूर्व कोश की अपेक्षा सस्कृत कोण का परक परिचय संक्षिप्त है, पर उपयोगी रूप में कराया गया है। परंतु यह एक वृहत्तर सस्करण है। इसके सफलयिता थे तर्कदाचस्पति | "शब्दकल्पद्रुम' शीर 'वाचस्पत्यम्' द्वारा उद्धरणो की विस्तृत पृष्ठभूमि के तारानाय भट्टाचार्य, जो वगाल के राजकीय • सस्कृत महाविद्यालय में संपर्क में उभरे हुए अर्थचित्र यद्यपि सश्लिष्टवोच्च देने में सहायक होते असापक थे। हैं तथापि द्ध” ण के माध्यम से सवज्ञान का प्रकार विश्वकोशीय