पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/२२

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|| ही *या है । उपयोगितासंपन्न होकर भी सामान्य सस्ती के लिये ---- महत्वपूर्ण माने लिया गा था। वंह भाप समस्त विद्या और यह व्यावहारिक सौविष्य से रहित हो गया है । ज्ञान की प्राप्ति का एक प्रकार से प्रवेशद्वार समझी जाने लगी थी। पाश्चात्य कोशविद्या का अकुरण भी इन्हीं लातिन-शब्द-सूचियो से सस्कृत के माध्यम से छोटे बेटे अनेक सस्कृतकोश बने । परतु कोश हुआ था, जिन्हें ग्लासेज कहते थे। 'ग्लासरी' शब्द भी इसी मूल से व्युत्पन्न । विकास के इतिहास में उनका कोई महत्व नहीं माना जा सकता। हैं । ग्लासेज को अर्थ होता था शब्दसूचियां । 'लातिन' ग्रंथो के पढ़नेसस्कृत के अनेक कोश ऐसे भी बने जो भारतीय भाषाओं के माध्यम | वाले–थो के हाशिए पर उनके दुबौध्य और कठिन शब्दो को लिख से संस्कृत शब्दों का अर्थपरिचय देते हैं। परतु उनमे कोई अपनी । दिया करते थे। अपनी स्मृति द्वारा अथवा अन्य विज्ञों की सहायता स्वतत्र विशेपता नहीं दिखाई देती । 'विल्सन' अथवा 'विलियम्स', से----कभी सरल 'लातिन' में और कभी तदितर स्वभाषा में --इन शब्दो 'मैक्डोनल्ड', 'शाप्टे' के कशि का या त इन्होने अाधार लिया। | का अर्थ भी हलके अक्षरों में लिच्च लेते थे। इसी शब्द को 'ग्लास' अथवा थोडी बहुत सहायता ‘शब्दकल्पद्रुम' और 'वाचस्पत्यम्' से ली ।। कहते हैं। । मराठी-सस्कृत-क। संस्कृत-तमिल-कोश, सस्कृत-तेलगू-कश, सस्कृतबैंगला गोश, सस्कृत-गुजराती-कोश, सस्पृत-हिंदी-कोश आदि भारतीय 'रोमानिक' भूमिवासियों के लिये प्राचीन रोमन भाषा (लातिन) आधुनिक भाषा के तत्तत् नामवाले--सैकड़ों की संख्या में कोश धने बहुत कठिन नहीं थी । पर दूरस्थो के लिये वह भाषा दुबोध्य थी । हैं और प्राज यै कोश उपलब्ध भी है । यहाँ पर ध्यान रखने की अत ‘केल्टिक' भीर ‘ट्यूटोनिक’ प्रदेश के दूरस्थो की दृष्टि में उपर्युक्त । एक भीर बात यह है कि सस्कृत के उक्त दोनो महाकोश वगाल की भूमि , ग्लास पद्धति' अधिक उपयोगी हुई। व्यापक रूप से और अपेक्षाकृत में ही बने । अधिक विस्तृत आयाम में इस प्रकार की शव्द सूचियाँ बनी। इनके बैंगना विश्वकोश भी संभवत उसी परपरा से प्रभावित- माध्यम से सैक्सन, इग्लिश, 'मायरिश', ' 'प्राचीन जर्मन ( गाथिक) ‘शब्दकल्पद्रुम' और 'वाचस्पत्यम्' का ही एक रूप है । इसमें यद्यपि अदि भापा के ऐसे प्राचीन शब्दरूप बहूत बडी मात्रा में सुरक्षित रह । अधुनिक विश्वकोश की रचनापद्धति को अपनाने की चेष्टा हुई है गए हैं जिनमें तत्तद्भपाओ के बहुत से शब्द अाज अन्यत्र दुर्लभ है । तथापि वह भी मिश्रित शैली का ही विश्वकोश है। उसका एक हिंदी संस्करण मी हिदी विश्व के नाम से प्रकाशित किया गया है। कहा जाता है कि इग्लंह में उत्पन्न ‘जोन्से दी गालँडिया' ने लातिन. बगन्ना विश्वकोश का पूरा पूरा प्राधार लेकर चलने पर भी हिंदी के एक हिमेशनेरियस का निर्माण---१२२५ ई० में किया था। लातिन, को यह प्रथम विश्वकोश नए सिरे से तैयार किया गया । - -- शव्दकोश और विश्वकोश के मिश्रित रूप की यह पद्धति केवल --शब्दकोशो के प्रारमिक अस्तित्व की चर्चा में अनेक देशों और संस्कृत भार वैगला के कामों में ही नहीं अपितु भारतीय भापा के अन्य जातियों के नाम जुडे हुए हैं। भारत में पुरातनतम उपलब्ध माब्दकोश कशों में भी लक्षित होती है । अग्रेजी धादि मापा के अनेक वडे कोशों वैदिक ‘निघटु है। उसका रचनाकाल कम से कम ७०० यी ८०० ई० पू० में यह सरणि है--विशेषत प्राचीन संस्करणो में । पुणचद्र को उडिया है। उसके पूर्व भी ‘निन' को परपरा थी । अत कम से कम ई० ० कान भी इसी पद्धति का एक अथ हैं। हिदी प्राब्दसागर' भी अपने प्रथम १००० से ही निघट्ट कोणो का संपादन होने लगा था। कहा जाता है." सस्करण में अधिक रूप से इसी पद्धति पर चला। द्वितीय साधित कि 'चीन' में ईसवी सन् के हजारों वर्ष पहले से ही कोश बनने लगे थे । और परिवर्धित संस्करण में भी उसके पूवरूप को सुरक्षित रखने की पर इस श्रुतिपरपरा का प्रमाण बहुत वाद-~-मागे चलकर वस प्रथम चीनी चेष्ट्री हुई है। परतु लवे लने पौराणिक, शास्त्रीय अथवा दार्शनिक काश में मिलता है, जिसकी रचना 'शुमो देन' (एस-एच-यू-मो-ढव्य : उद्धरणों का भार इसमें न आने देने का चैप्टी हुई है। सबद्ध वस्तु ई-एन) ने पहली दूसरी बाचो ई• के आसपास की गो (१२१ ई० भां अथवा पदार्थ ज्ञान के लिये उपयोगी विवरण को यथासभव देने की इसका निर्माण काल कहा गया हैं)। चीन के 'हान' राजाश्रो के राज्यमेष्टा की गई है। काल में भाषाशास्त्री 'शो मेन' के कोश को उपलब्ध कहा गया है। यशिया भूखंड में एक प्राचीनतम 'अकादी-सुमरी' शब्दकोश को नाम आधुनिक कोश विद्या पश्चिम मै लिया जाता है जिसके प्रथम रूप का निर्माण---अनुमान मोर कल्पना के अनसार--- ० पू० ७वीं शती में बताया जाता है। कहा जाता है कि आधुनिक कोशरूप का उद्भव और विकास हेलनिस्टिक युग के यूनानियों में भी योरप में सर्वप्रथम कोशरचना उसी पश्चिमी विद्वानों के सपर्क से भारत में जिस कशि-रचना-पद्धति प्रकार प्रारभ की थी जिस प्रकार साहित्य, इयं न, व्याकरण, राजनीति का १८वी पाती में विकास हुअा, पश्चिम में पहले से ही वह प्रचलित आदि के वाममय की । यूनानियों का महत्व । समाप्त होने के बाद और हो चुकी थी। अक्ष. योरप की कोण-रचना-पद्धति के विकास का ऐति- रोमन साम्राज्य के वैभवकाल में तथा मध्यकाल में भी बहत से लातिन हासिक सिंहावलोकन यहाँ देना अनुचित न होगा।" के कोश बने । ‘लातिन' का उत्कर्ष और विस्तार होने पर लातिन तथा लातिन 4- अन्यभाषा कोश, शनै शनै बनते चले गए । 'लातिन' ग्लासरसॉस--रोमन धर्म अोर साम्राज्य की धार्मिक एवं राजनीतिक कोशों की चर्चा में इसका कुछ बणन किया गया है। सातवी-छोटी महत्ता के कारण समस्त पश्चिमी योरप मे लातिन (लैटिन) सर्वप्रमुख शती ई० मे निमित एक विशाल अरबी शब्दकोश' का उल्लेख भी माथी बन गई थी । उस भाषा के ग्रथों का अध्ययन अत्यंत उपलब्ध है। ।। || ।