पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/३६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

२५ - | प्रचलित अर्थमात्र दिए गए हैं। हिंदी में एकाध पर्यायवाची कोश भी बाहर भी निर्माण हुआ । प्रारभ में भारतीय भाषाग्री के मुख्यतः बनाए गए हैं। विशिष्ट विषयों के पारिभाषिक शब्दों के अथक संस्कृत के, कोश अग्रेजी, जर्मन, फ्रेंच आदि मापाग्रो के माध्यम से वनाए भारत को अनेक भाषा और हिंदी में भी वन रहे हैं। इनमें गए 1 इनमे सस्कृत शादि के शब्द भी रोमन लिपि मे रखे गए। शब्दार्थं बहुत से ऐसे कोश हैं जो ज्ञानकोश की सीमा के अंतर्गत आ जाते हैं। की व्याख्या भर अर्थ अादि के निर्देश कोश की भाषा के अनुसार जर्मन, | इनमे विस्तृत व्याख्या और कभी कभी ऐतिहासिक परिचय भी रहता है। अग्रेजी, फारसी पुर्तगाली श्रादि मापाशो में दिए गए। बैंगली, तमिल परतु कुछ कोश याव्दार्थ माने का वध कराते हैं कमी पर्यायो द्वारा आदि भाष प्रो के ऐसे अनेक काशो की रचना ईसाई धर्मप्रचारको और कभी सक्षिप्त व्याख्या द्वारा। इस विधा को हम विषय शव्द द्वारा मारत और अासपास के लघु द्वीपो मे हुई । हिदी के भी ऐसे अनेक कोश कह सकते हैं । इनके अतिरिक्त जैसा ऊपर सवेत किया गया कोण बने। इनके चर्चा की जा चुकी है। प्रथम संस्करण की भूमिका | है, विभिन्न कवियो लेखको के ग्रथो अथवा विशिष्ट ग्रयो के भी कोश में पृष्ठ १-२ पर हिंदी के अाधुनिक कोशो की भारभिक रचना का अर्थसहित बनाए जाते है । प्रथम प्रकार के केशों में हिंदी के निर्देश किया गया है। सबसे पहला शब्दकोश संभवत फरग्युसन को | सूर व्रजभाषा कोश (डा० टडन ), प्रसाद व्यकोश (श्रीसुधाकर पांडेय) 'हिंदुस्तानी अग्रेजी' (अग्रेजी हिंदुम्तानी) कोश था जो १७७३ ई० मे लदन | माद को रखा जा सकता है और द्वितीय कोटि में मान्स शब्द कोश में प्रकाशित हुआ। इने भारभिक कोशो को हिंदुस्तानी कोश कहा गया । आदि को । वडे शब्दार्थ के शो में कभी कभी विश्वकोश य पद्धति के। ये कोशे मुख्यत हिंदी के ही थे। पाश्चात्य विद्वानो के इन कोशो मे अनुसरण करते हुए ऐतिहासिक और विवरण (मक, परिचय हिंदी को हिंदुस्तानी कहने का कदाचित् यह कारण है कि हिंदुस्तान भी स्थान रथ न प दे दिया जाता है। शब्दकल्पद्रुम, वाचस्पत्य, भारत का नाम माना गया, और वहाँ की भाषा हिंदुस्तानी चही हिंदी शब्दसागर अादि इसी प्रकार के शब्दकोश हैं। वेस्टर की गई । कोशदिद्यः के इन पाम्चात्म पडितो की दृष्टि में हिंदी को ही न्यू इगलिश डिक्यानर भी इसी प्रकार का शब्दकोश है जिसमें विश्व अपर पर्याय हिंदुस्तानी था और वही सामान्य रूप से हिंदुस्तान की। कोशीय पद्धति की रचनाशैली बहुत दूर तक अनियोजित है। यहाँ राष्ट्रभाषा थी । पश्चिम में विकसित नूतन पद्धति पर बने हुए संस्कृत यह संकेत भी कर देना अनुचित न होगा कि हिंदी के शब्दाथ कोशो मै तथा अन्य भारतीय भाषाओं के कोशों और उनकी उपलब्धियों के योगिक, सामासिक शब्दो और लोकोक्तियो, मृहारो आदि का भी उसी वैशिष्ट्य का रूपरेखात्मक परिचय दिया जा चुका है । प्रकार अतयोंग लक्षित होता है जिस प्रकार सस्कृत कोशी अथवा अग्रेजी कोशो में । क्रियाप्रयोग भी हिंदी शब्दसागर में दिखाए गए भारत की प्रादिमध्यकालीन कोशविद्या के ऐतिहासिक विकास हैं । यहाँ अथवा सामान्य क शो में लोकोक्तियों और मुहावरो का की रूपरेखा से स्पष्ट हो चुकी है कि आरमिक क्रम में को निर्माण पर्थव ध अथवा क्रिय।प्रयोग शब्दवि शेप के अंतर्गत दिखाया गया की प्रेरणात्मक चेतना का बहुत कुछ सामान्य रूप भारत और है। परतु कुछ कोश ऐसे भी बने हैं जो केवल लोकोक्तिकोश' या पश्चिम में मिलता जुलता था। भारत का वैदिक निघट्ट विरल और मृहावराकोश कहे जाते हैं । मिलप्ट शब्दों के अर्थ और पयायो का सक्षिप्त संग्रह था । योरप में भी ग्लासे रिया से जिस कोपविद्या का अारभिक बीजवपन हुप्रा था, सामान्य शब्दार्थकोश एक मापी या अनेक भाषी होते। उसके मूल में भी विरल और क्लिष्ट माब्दो का पर्याय द्वारा अर्थबोध हैं। एकभाप कोणों में व्यस्यात्मक अर्थकोण होते हैं, पर्यायवाची कराना ही उद्देश्य था । लातिन की उक्त शब्दार्थसूची से शनै शन. फग होते हैं और वीं कभी विपक्ष को भी मिल जाते हैं। पश्चिम की अधूनिक कोण विद्या के वैफासिक सोपान प्रावित हुए । बहने का तात्पर्य यह कि शाब्दकोशों की अनेक विधाएँ विकसित ह भारत और पश्चिम दोनों ही स्थानों में शब्दों के सकलन मे वर्गपद्धति । रही हैं और उनके अनुसार अनेक प्रकार के छोटे व कोण निमत होते वा कोई न कोई रूप मिल जाता है । पर आगे चलकर नव्य कोशो जा रहे हैं । शब्दानुक्रमणिकाओं को जो मात्र शन्दो की अर्थरहित सूचियाँ का पूर्वोक्त प्राचीन और मध्यकालीन को शो से जो सर्वप्रथम और होती हैं, छोड देने पर भी अनेक अथ के साथ सार्थक शब्दा- प्रमुखतम भेदक वैशिष्ट्य प्रकट हुआ वह था वर्णमालाक्रमानुसारी नुक्रमणिकाएँ भी मिलती हैं। इन्हें हम अथ विशेष के क्लिष्ट या शब्दयोजना की पद्धति । विरल पदो का बदकोश कह सकते हैं। इसके अतिरिक्त अाधुनिक और पाश्चात्य कोशो की अन्य आधुनिक कोशविद्या तुलनात्मक दृष्टि भेदकताएँ मुख्यत निम्ननिर्दिष्ट हो सकती हैं--- मध्यकालीन हिदी कोशो की मान्यता और रचनाप्रक्रिया से भिन्न (१) योरप में विष रूप से और भारत में प्रशिक रूप से--- उद्देश्यों को लेकर भारत में कोश विद्या के आधुनिक स्वरूप का उद्भव और विकास हुआ। पाश्चात्य को शो के प्रदर्भ, मान्यताएँ, उद्देश्य, अादिमध्यकालीन कोशकर्म में कठिन शब्दों का सरल शब्दो या पर्याय रचनाप्रक्रिया और सीमा के नूतन और परिवर्तित आयामों का प्रवेधा । द्वारा अर्थज्ञापन होता था। योरप में सामान्यत एक पर्याय दे दिया भारत की कोण रचनापद्धति में श्रीरभ हुमा । सस्कृत ओर इतर जाता था अौर भारत में वैदिक निघटुकाल से ही पर्यायशब्दों का मारती ये 'मापा में पाय चात्य तथा भारतीय विद्वानों के प्रयास से छोटे अर्थबोधकपरक एकत्रीकरण होता था। इनमें दुर्बोध्य और कठिन शब्दो ।। बडे बहुत से कोश निर्मित हुए । इन को शो का भारत और भारत के के संग्रह की मुख्य प्रेरणा थी। भारतीय कोशों में बहुपर्याय सग्रह के