पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/३७

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कारण अनेक क्लिष्ट शब्दों के साथ पर्यायवाची कोशी मे सरल शब्द 'मी सयुत्त विवित्त विवरण, यौगिपः एव महापरी के मादयोग तथा समाविष्ट रहते थे । निघट वा शब्दसकलन 'मी वैदिक वाङमय के धातुयोग प्रादि के अर्थवैशिष्ट्य । सहरण निगम में प्राधनित समग्न व्दिनिधि का संग्रह न होकर अधिवात दुध्य और विवेच्य पोशी में रहना है। यह स्व प्राचीन काल में नहीं था । कोशीया शब्दो की सकलन प्रेरणा से प्रभावित है। में अवश्य इनमे से अनेक जात प्रगत श्रीर प्रगत निदिष्ट कर दी जाती थी। (२) भारत के प्राचीन कोण पर्यायवाची या समानार्थक थे । प्रारमिक अवस्था मे नानार्थक शब्दो का इनमे परिशिष्ट जुड़ा रहता था। आधनिका कोश सीमा शीर स्वरूप आगे चलकर नानार्थक या अनेकार्थक शब्दलिपि का विमान में प्राकलन । होने लगा । फलतः संस्कृत के अनेक नानार्थं कोणों में मुख्यत नाम है। योरप में अनियः नोगो का जो स्वम्प विकसित हुघा, उनकी होता था और आगे चलकर लिगनिर्देश भी होने लगा। पर्यायवाची मूपरेखा का गत किया जा चुका है। योप, एनिया र प्रकि। कोशो की सग्रहयोजना वर्गपरयः हो गई थी। नानार्थ ब्दिों की म- के उरी तटमाग में जो प्रेरी के प्रभाव में आ गए, योजना में अत्य घ्य जनाक्षर का क्रम ( मूलत ) अपनाया गया । पर उक्त पद्धति के अनुकरण पर पग यी निर्माण हुने 'उगा था । कभी कभी आदिवर्ण का आधार लेकर वर्णमालानसारी शब्द-ए- भारत में व्यापक पैमाने पर जिग रूप में पनि निमित होते चले. योजना का प्रयास भी किया गया। पर दूसरी ओर अ।धुनिक कोश उनकी मदिाप्न चर्चा की जा चुकी है। इन रान के पाघार पर उत्तम में लघु कोशों के अतिरिक्त पर्याय के साथ साथ अर्थत्रोच्चका न्यायाएँ कोटि के साघुनि गों की विशिष्टता मी ग मानन परते हुए कहा भी दी जाती है । संस्कृत में यह नहीं था। पाए अवश्य यह कार्य शा माना है। करती थी । सस्कृत के समानार्थक कोण की भाँति अाधुनिक पोशों में (य) प्राधनिक पोशो में जदयोग वे ऐनिहूम झम की रवि दययि रखने पर अधिक बल देने की चेष्टा नहीं होती । कभी कमी दिखाने के प्रयास को बहुत महत्व दिया गया है। ऐसे हैं जो यो अवश्य ही सस्कृत कोशों के प्रभाव से हिंदी आदि में भी पर्यायवाची ऐतिहानिक विवरणात्मक दहा जा सकता है । इपलब्घ प्रथम प्रयोग कोश बन जाते हैं ! पर वस्तुतः ये कोश संस्कृत के शो के अवशेषमान और प्रयोगनदर्म का प्राधार र अर्थ और उनमें एक भुवी या है, अाधुनिक कोश नहीं । बहुमुखी विका ने सप्रमाण उपन्यापन की चैप्टी की जाती है। दूगरे शब्दों में इसे हम शब्दप्रयोग और तायार्थ के रूप फी नुक्रमिक (३) संस्कृत के प्राचीन कोशो में मुख्यत नामपदो, अव्ययभन्दा यो इतिहासानुसारी विवेचना कहू मरने हैं। इसमें उद्धरण का तथा कभी कभी धातु फा मा संग्रह होता था । व्याकरण- उपयोग दोनों ही बातों (शब्दप्रयोग पर प्रर्थयिनन) की प्रामाणिक को भी संग्रह होता था । व्याकरणप्रभावित सग्रहदृष्टि का मूल कदाचित् पाणिनि के घातुपाठ और। सिद्ध करते हैं । गणपाठ में दिखाई पडता है। प्रारंभ में, अमरकाल और उनके वाद, सस्कृत फोशो का मुख्य रूप नामलिंगानुशासनत्मिक हो गया । (ख) माधुनिक र पे हारी नगृहीन शब्दो भीर प्रयों के आधुनिक कोणो मैं रचनाविधान की भिन्नता के कारण इसे प्राचार का प्रामाण्य भी अपेक्षित होता है। प्राचीन को प्रातार इम अनुपयोगी मानवार सर्वथा त्याग दिया गया। परंतु व्यकिरणमूलक ज्ञान लिये बाध्य नहीं था। वह स्वत प्रमाण ममझा जाता था। पूर्व नवा और प्रयोग के लिये उपयोगी निर्देश प्रत्येक शब्द के साथ लघुसफेती या ग्रयों का ममाहार करते हुए यदाकदा इतना भी कह देना द्वारा निर्दिष्ट होते है । चमारे लिये बहुधा पर्याप्त हो जाता था। पर अाधुनिक कोशो में ऐसे ब्दों के संबध में जिनका साहित्य या व्यवहार में प्रयोग नहीं मिलना, (४) आज के शब्दकोश का निर्माण उन समस्त जनों के लिये पह वतनी भी आवश्यक हो जाता है कि अमृक शब्द या अयं होती हैं जो तत्तद्भपात्रो के सरल या कठिन किसी भी शब्द का कोशीय मान्न हैं। अर्थ जानना चाहते हैं । सस्कृत कोशो का मुख्य रूप पद्यामफ होता था। इस कारण उसका अधिकत उपयोग वे ही घर पाते थे जो कोमपद्या (ग) अाधुनिक योगी की ए टू नई धारा ज्ञानकोशात्मक को कठस्य कर रखते थे। प्रयोग और अर्थज्ञान के साथ साथ कोशो । हैं जिनका उत्कृष्ट रुप विश्वकोश के नाम में सामने आता है। | अन्य रूप पारिभाषिक शब्दकोश, विपयफश, चरितकोश, ज्ञानकोश, को कठस्थ करना भी एक उद्देश्य समझा जाता था पर आज के नवीन अब्दकोण आदि नाना रूपों में अपने अभिोग का विस्तार करते चले पोशो का यह प्रयोजन बिल्कुल ही नहीं है । (५) सस्कृत के प्राचीन कोशों का प्रयोजन होता था कवियो, (घ) अधिनिक शब्दकोश में अर्य की स्पष्टता के लिये चित्रे, रेखानाहित्य निर्माताओं और कोच्य शास्त्रादि के पाठकों के माध्यम हार की। पाठकों के दिमकार का चिन्न, मानचित्र प्रादि का उपयोग भी दिया जाता है । वृद्धि करना। परतु आधुनिक कोणों का मुख्य प्रयोजन हैं घाब्दी के अर्थ का ज्ञान कराना और तत्संबधी अन्य बातों की जानकारी देते (४) विशुद्ध शास्त्रीय वाडमय (शस्त्र ) के प्राचीन स्तर से हटकर हुए उनके समीचीन प्रयोग की शक्ति बढ़ाना । आज के कोश वैज्ञानिक अथवा विज्ञानकल्प रचनाप्रक्रिया के स्तर पर पहुँच गए हैं। ये कोश रूपविकास और अर्थ विकास की ऐतिहासिक (६) इनके अतिरिक्त शब्दोच्चारण, व्युत्पत्तिमूचन, शब्दप्रयोग प्रामाणिकता के साथ साथ भाप वैज्ञानिक सिद्धात को संगति ढूंढने का के प्रथम प्रयोग और यदि कोई शब्द लुप्तप्रयोग हो गया हो तो उसका पूर्ण प्रयत्न करते हैं। घुनिक भाप के तद्भव, देशी र विदेशी सप्रमाण ऐतिहासिक वर्णन, नाना मर्यों का सामान्य एवं विशेष संदर्भ- घाब्दों के मूल और स्रोत हुने की चैप्ट्रा की जाती है। कभी कभी