पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/३८

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चीन भाषा या भांपा के मूलस्रोतो की गवेपणा के व्युत्पत्ति- अप्राप्य है हीं । तत्तद् ग्रंथों में कितना अश क्षेपक है एव कितना मूल | दर्शन के संदर्भ में महत्वपूर्ण प्रयास होता है । बहुभापी पययकोशो है, इसका प्रसदिग्ध प्रमाण भी अनुपलब्ध है। ‘रास जैसे में ऐतिहासिव अौर दुलना में क भाप, विज्ञान में सहयोग र सहायता महाग्रंथ के प्रामाणि क र मूल रूप का प्रश्न अत्यत विवादास्पद है। द्वारा स्रोतभाप के कल्पनानिदिष्ट रूप अगीकृत होते हैं । उसे ज ल य भी वह दिया जाता है और उसके निर्माणकाल का भी उदाहरणार्थ प्राचीन भारत-य,रोपीय - अर्यभाप के वहुभाषी निधरण अभी नहीं हो पाया है। ऐसी स्थिति में प्रकाशित ग्रंथो के तुलनात्मक कोशो मे मुले अर्यभापा ( या अायों के "फादर लैंग्वेज' ) अाधार पर संकलित रदसमूह और उनके प्रयोग का इतिहास विवादामें वल्पित मल रूपों में अनुमान वि या जाता है। दूसरे शब्दो मै इसको स्पद और प्रमाणहीन रह जाता है। तात्पर्य यह है कि आधुनिक उत्कृष्ट कशो में जहाँ एक और प्राचीन हस्तलेखो में शुद्ध पाठ की प्राप्ति स्वः दुःसाध्य कार्य है। इसके 'और पूर्ववर्ती वा मय का मा प्रयोग के अमिम ज्ञान के लिये एति- अतिरिक्त उनसे हिदी कोशकारो का शब्दसंग्रह करना और भी दुष्कर 'हा'सक अध्ययन हैं तो हैं हाँ भाषाविज्ञान के ऐतिहासिके, तुलनात्मक है। अपेक्षित आर्थिक साधन के अभाव में अप्रकाशित हस्तलेखो से शब्द और वर्णनात्मक दृष्टि पक्षो का प्रोट सहयंग और विनियोग अपेक्षित संग्रह करना प्राय उपेक्षित ही रहा है। वहने का तात्पर्य केवल यह रहता है । कोविज्ञान की नूतन रचन}प्रत्रिया आज के युग में कि हिंदी कोश के पूर्ण विकसित स्वरूप का निर्माण प्राज की परिभाषाविज्ञान के नाना अगों से बहुत ही प्रभावित हो गई है। इस स्थिति में भी असभवप्राय जान पड़ता है। |प्रभाव की दूरगामी व्याप्ति का नीचे की पत्तियो में सक्षेपत सकैत किया कोश के लिये संकलित शब्दसमूह के आधार ऐसे शब्द होते है जो जा रहा है। आलोचनात्मक और वैज्ञानिक पद्धति से विवेचित एव शुद्ध पाठवाले कोशरचना की प्रक्रिया और भापाविज्ञान सस्करणो से सगृहीत हो । भाषाविज्ञान के ऐतिहासिक शीर तुलनात्मक ।। कोशनिमणि का शब्दसकरून सर्व प्रमुख आधार है। परतु शब्दो दृष्टियो से पाठविज्ञान का घनिष्ठ सवध है। शब्दरूप और तद्द्वोध्य | के सरह का कार्य अत्यंत व ठिन है। मुख्य रूप में शब्दों का चयन दो अर्थ का निर्णयात्मक स्वरूप भी भाषाविज्ञान की दृष्टि की--बहुत दूर ‘स्रोता से होता है--(१) लिखित साहित्य से अौर (२) लोकव्यवहार तक--अपेक्षा करता है। 'और लोकसाहित्य से । लिखित साहित्य से स ह्य शब्दों के लिये हस्तलिखित र मुद्रित ग्रंथो का सहारा लिया जाता है। परंतु इसके | लोकभाषा से शब्दसकलन भतर्गत प्राचीन हस्तलेखो और मुद्रित-ग्रंथो के आधार पर जव शब्द व्यावहारिक लोकभाषा से शब्दसंग्रह करनी श्रमसाध्य कार्य सकलन होता है तछ समयविध प्राधान्ग्रथो की प्रामाणिकता और अवश्य है परतु असभव नही है। इनके रूप का स्रोत हूढने और अर्थपाटणुद्धि आवश्यक होती है। इनके विमा गृहीत घाब्दो का महत्व कम विकास की शृखला निर्धारित करने में भाषाविज्ञान की अत्यधिक हो जाता है और उनसे भ्रम सृष्टि की संभावना बढती है। सहायता अपेक्षित होती है ।। | हिदीकोश मे शव्दसंकलन . शुद्धपाठ लोकसाहित्य का अाज एक स्वतन्त्र अध्ययनक्षेत्र लोक-साहित्य विज्ञान के रूप में विकसित हुआ है । परपरागत लोकगीतों में लोक। मदित या हस्तलिखित ग्रथों से जी शब्दसकलन होता है उसमे साहित्य का काफी पुराना अश चला आ रहा है। लोककथाभी आदि साहित्य का काफी पराना 91 पाट की शुद्धि नितात अपेक्षित है । ऐतिहासिक दृटि से उनका महत्व के पद्यात्मक रूपो में शब्दरूपों की परंपरा सुरक्षित मिल जाती है। तभी स्थापित हो सकता है जब पाठलाचन विज्ञान के अनुसार ग्रंथ के परतु प्राचीन बोलियों से गद्यरूपे काफी दूर हो जाता है। लोकबलियो मालोचनात्मक ( झिटिव ल ) सस्करण संपादित हो और उनके से एक और तो त्तद् वोलियो के शब्दकोशों का निर्माण करने में माध्यम से प्राचीनतम शुद्ध पाठ उपलब्ध हो । शुद्ध र मूल पाठ तभी शब्दों का संकलन सहायक होता है, दूसरी ओर शब्द के रूपविकास निर्धारित हो सकता है जब यह ज्ञात हो कि भाप में प्रयुक्त फोन से और अर्थविकास के कई के रूप में भी उनकी उपयोगिता होती हैं । शब्द की कच क्या रूप था और उसके अथविकसि का क्या में था ? हिदी के कोशो में तो बलियो के बहुत से शब्दों का सकलन और भी पूना से प्रकाशिप्यमणि सर मृत कोश के प्रधारित अथो के ऐसे आवश्यक हो जाता है। मध्यकालीन हिंदी के अंतर्गत राजस्थानी समालोचित पाठ का निर्धारण किया जा रहा है जो पाठालोचन के ब्रजभापा, दक्खिन, हिंदी, संधुषकढी, बुदेली, अवधी, बिहारी! मैथिल, उर्द 'वैज्ञानिक सिद्धांतों से घिवेचित हो। प्रसगवा यहाँ इतना कह देना आदि अनेक प्रातीय या क्षेत्रीय भापा और बोलियो के ग्रथ समाविष्ट अवश्यक है कि हिंदी में अदि और मध्य कालों के हिंदी ग्रंथों के ऐसे किए गए हैं। भापावैज्ञानिक दृष्टि से वाक्यगठन के प्रधार पर पूर्वी संस्करण अत्यत दुर्लभ है जिनके पाठों को मपादन पाठालोचनविज्ञान के और पश्चिमी हि की भाषाओं और बालियो मे स्पष्ट अतर होने पर माघार पर हुआ हो । रामचरितमानस के पाठ.लोचन की चेष्टा कुछ भी, साहित्यिक दृष्टि से, विशाल हिदी क्षेत्र की भापा, विमापा और मधिक हुई हैं, और उसके अपेक्षाकृत कुछ अच्छे सस्करण प्रकाशित बोलियो के शब्दरूपो और वध्यार्थी का भाकलन और संकलन हिद, कोशों | हुए और हो रहे हैं। परंतु अनेक महत्वपूर्ण साहित्यिक ग्रय अभी मे अनिवार्य हो जाता है। रूपविकास और अर्थविकास की ऐतिहासिक ' जिस रूप में उपलब्ध हैं, उनमे पाठालोचनविज्ञान की संपादनपद्धति का और तुलनात्मक प्रतिपत्ति के लिये वोलियो के शब्दों का संकलन भी | प्राय. अभाव हैं। पृथ्वीराज रासो, सूरसागर, कबीर साहित्य आदि हिदी और इस श्रेणी की अन्य भाषाओं के कोशों में बहुत सहायक होता || ॐ पूर्णतः सतीषदापक सस्करण आज भी अनुपलब्ध हैं। शुद्ध पाठ तो हैं। कहने की अावश्यकता नहीं कि बोलियो मौर लोकसाहित्य के