पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
प्रथम संस्करण की भूमिका
किसी जाति के जीवन में उसके द्वारा प्रयुक्त शब्दों का अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान है। आवश्यकता तथा स्थिति के अनुसार इन प्रयुक्त शब्दों का आगम अथवा लोप तथा वाच्य, लक्ष्य एवं द्योत्य भावों में परिवर्तन होता रहता है। अतएव और सामग्री के अभाव में इन शब्दों के द्वारा किसी जाति के जीवन की भिन्न-भिन्न स्थितियों का इतिहास उपस्थित किया जा सकता है। इसी आधार पर आर्यजाति का प्राचीनतम इतिहास प्रस्तुत किया गया है और ज्यों-ज्यों सामग्री उपलब्ध होती जा रही है, त्यों-त्यों यह इतिहास ठीक किया जा रहा है। इस अवस्था में यह बात स्पष्ट समझ में आ सकती है कि जातीय जीवन में शब्दों का स्थान कितने महत्त्व का है। जातीय साहित्य को रक्षित करने तथा उसके भविष्य को सुचारु और समुज्वल बनाने के अतिरिक्त वह किसी भाषा की संपन्नता या शब्दबहुलता का सूचक और उस भाषा के साहित्य का अध्ययन करनेवालों का सबसे बड़ा सहायक भी होता है। विशेषतः अन्य भाषा-भाषियों और विदेशियों के लिए तो उसका और भी अधिक उपयोग होता है। इन सब दृष्टियों से शब्दकोश किसी भाषा के साहित्य की मूल्यवान् संपत्ति और उस भाषा के भंडार का सबसे बड़ा निदर्शक होता है।

जब अँगरेजों का भारतवर्ष के साथ घनिष्ठ संबंध स्थापित होने लगा, तब नवागंतुक अँगरेजों को इस देश की भाषाएँ जानने की विशेष आवश्यकता पड़ने लगी; और फलतः वे देशभाषाओं के कोश, अपने सुभीते के लिए बनाने लगे। इस प्रकार इस देश में आधुनिक ढंग के और अकारादि क्रम से बननेवाले शब्दकोशों की रचना का सूत्रपात हुआ। कदाचित् देशभाषाओं में से सबसे पहले हिंदी (जिसे उस समय अँगरेज लोग हिंदुस्तानी कहा करते थे) के दो शब्दकोष श्रीयुक्त जे॰ फर्गुसन नामक एक सज्जन ने प्रस्तुत किए थे, जो रोमन अक्षरों में सन् १७७३ में लंदन में छपे थे। इनमें से एक 'हिंदुस्तानी अँगरेजी' का और दूसरा 'अँगरेजी हिंदुस्तानी' का था। इसी प्रकार का एक कोश सन् १७९० में मद्रास में छपा था जो श्रीयुक्त हेनरी हेरिस के प्रयत्न का फल था। सन् १८०८ में जोसफ टेलर और विलियम हंटर के सम्मिलित उद्योग से कलकत्ते में एक 'हिंदुस्तानी अँगरेजी कोश' प्रकाशित हुआ था। इसके उपरांत १८१० में एडिन्‌बरा में श्रीयुक्त जे॰ वी॰ गिलक्राइस्ट का और सन् १८१७ में लंदन में श्रीयुक्त जे॰ शेक्सपियर का एक 'अँगरेजी हिंदुस्तानी' और एक 'हिंदुस्तानी अँगरेजी' कोश निकला था, जिसके पीछे से तीन संस्करण हुए थे। इनमें से अंतिम संस्करण बहुत कुछ परिवर्धित था। परंतु ये सभी कोश रोमन अक्षरों में थे और इनका व्यवहार अँगरेज या अँगरेजी पढ़े-लिखे लोग ही कर सकते थे। हिंदीभाषा या देवनागरी अक्षरों में जो सबसे पहला कोश प्रकाशित हुआ था, वह पादरी एम॰ टी॰ एडम ने तैयार किया था। इसका नाम 'हिंदी कोश' था और यह सन् १८२९ में कलकत्ते से प्रकाशित हुआ था। तब से ऐसे शब्दकोश निरंतर बनने लगे, जिनमें या तो हिंदी शब्दों के अर्थ अँगरेजी में और या अँगरेजी शब्दों के अर्थ हिंदी में होते थे। इन कोशकारों में श्रीयुक्त एम॰ डब्ल्यू॰ फैलन का नाम विशेष रूप मे उल्लेख करने योग्य है, क्योंकि इन्होंने साधारण बोलचाल के छोटे-बड़े कई कोश बनाने के अतिरिक्त, कानून और व्यापार आदि के पारिभाषिक शब्दों के भी कुछ कोश बनाए थे। परंतु इनका जो 'हिंदुस्तानी अँगरेजी कोश' था उसमें यद्यपि अधिकांश शब्द हिंदी के ही थे, फिर भी अरबी फारसी के शब्दों की कमी नहीं थी, और कदाचित् फारस के अदालती लिपि होने के कारण ही उसमें शब्द फारसी लिपि में, अर्थ अँगरेजी में और उदाहरण रोमन में दिए गए थे। सन् १८८४ में लंदन में श्रीयुक्त जे॰ टी॰ प्लाट्स का जो कोश छपा था, वह भी बहुत अच्छा था और उसमें भी हिंदी तथा उर्दू शब्दों के अर्थ अँगरेजी भाषा में दिए गए थे। सन् १८७३ में मु॰ राधेलाल जी का शब्दकोश गया से प्रकाशित हुआ था जिसके लिए सरकार से उन्हें यथेष्ट पुरस्कार भी मिला था। श्रीयुक्त पादरी जे॰ डी॰ वेट ने पहले सन् १८७५ में काशी से एक हिंदी कोश प्रकाशित किया था, जिसमें हिंदी के शब्दों के अर्थ अँगरेजी में दिए गए थे। इसी समय के लगभग काशी से कलकत्ता स्कूल बुक सोसायटी का हिंदी कोश प्रकाशित हुआ था, जिसमें हिंदी के शब्दों के अर्थ हिंदी में ही थे। वेट के कोश के भी पीछे से दो और संशोधित तथा परिवर्धित संस्करण प्रकाशित हुए थे। सन् १८७५ में ही पेरिस में एक कोश का कुछ अंश प्रकाशित हुआ था, जिसमें हिंदी या हिंदुस्तानी शब्दों के अर्थ फ्रांसीसी भाषा में दिए गए थे। सन् १८८० में लखनऊ से सैयद जामिन अली जलाल का 'गुलशने फ़ैज़' नामक एक कोश प्रकाशित हुआ था, जो था तो फारसी लिपि में ही, परंतु शब्द उसमें अधिकांश हिंदी के थे। सन् १८८७ में तीन महत्त्व के कोश प्रकाशित हुए थे, जिनमें सबसे अधिक महत्त्व का कोश मिरजा शाहजादा कैसरबख्त का बनाया हुआ था। इसका नाम 'कैसर कोश' था और यह इलाहाबाद से प्रकाशित हुआ था। दूसरा कोश श्रीयुक्त मधुसूदन पंडित का बनाया हुआ था जिसका नाम 'मधुसूदन निघंटु' था और जो लाहौर से प्रकाशित हुआ था। तीसरा कोश श्रीयुक्त मुन्नीलाल का था जो दानापुर में छपा था और जिसमें अँगरेजी शब्दों के अर्थ हिंदी में दिए गए थे। सन् १८८१ और १८९५ के बीच में पादरी टी॰ केपन के बनाए हुए कई कोश प्रकाशित हुए थे जो प्रायः स्कूलों के विद्यार्थियों के काम के थे। १८९२ में बाँकीपुर से श्रीयुक्त बाबा बैजूदास का 'विवेक' कोश निकला था। इसके उपरांत 'गौरीनागरी कोश', 'हिंदीकोश', 'मंगलकोश', 'श्रीधरकोश' आदि छोटे-छोटे और भी कई कोश निकले थे, जिनमें हिंदी शब्दों के अर्थ हिंदी में ही दिए गए थे। इनके अतिरिक्त कहावतों और मुहावरों आदि के जो कोश निकले थे, वे अलग हैं।

इस बीसवीं शताब्दी के आरंभ से ही मानो हिंदी के भाग्य ने पलटा खाया और हिंदी का प्रचार धीरे-धीरे बढ़ने लगा। उसमें निकलनेवाले सामयिक पत्रों तथा पुस्तकों की संख्या भी बढ़ने लगी और पढ़नेवालों की भी संख्या में उत्तरोत्तर वृद्धि होने लगी। तात्पर्य यह कि दिन पर दिन लोग हिंदी साहित्य की ओर प्रवृत्त होने लगे और हिंदी पुस्तकें चाव से पढ़ने लगे। लोगें में प्राचीन काव्यों आदि को