पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/८

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अनुपस्थिति में स्वर्गवासी पंडित केशवदेव शास्त्री कोशविभाग का निरीक्षण करें। परंतु मेरी अनुपस्थिति में पंडित केशवदेव शास्त्री तथा कोश के सहायक संपादकों में कुछ अनबन हो गई, जिसने आगे चलकर और भी विलक्षण रूप धारण किया। उस समय संपादक लोग प्रबंधकारिणी समिति के अनेक सदस्यों तथा कर्मचारियों से बहुत रुष्ट और असंतुष्ट हो गए थे। कई मास तक यह झगड़ा भीषण रूप से चलता रहा और अनेक समाचारपत्रों में उसके संबंध में कड़ी टिप्पणियाँ निकलती रहीं। सभा के कुछ सदस्य तथा बाहरी सज्जन कोश की व्यवस्था और कार्यप्रणाली आदि पर भी अनेक प्रकार के आक्षेप करने लगे और कुछ सज्जनों ने तो छिपे-छिपे ही यहाँ तक उद्योग किया कि अबतक कोश में जो व्यय हुआ है, वह सब सभा को देकर कोश की सारी सामग्री उससे ले ली जाए और स्वतंत्र रूप से उसके संपादन तथा प्रकाशन आदि की व्यवस्था की जाए। यह विचार यहाँ तक पक्का हो गया था कि एक स्वनामधन्य हिंदी विद्वान् से संपादक होने के लिए पत्रव्यवहार तक किया था। साथ ही मुझे उस काम से विरत करने के लिए मुझपर प्रत्यक्ष और प्रच्छन्न रीति से अनेक प्रकार के अनुचित आक्षेप तथा दोषारोपण किए गए थे। इस आंदोलन में व्यक्तिगत भाव अधिक था। पर थोड़े ही दिनों में यह अप्रिय और हानिकारक आंदोलन ठंडा पड़ गया और फिर सब कार्य सुचारु रूप से पूर्ववत् चलने लगा। ‘श्रेयांसि बहुविघ्नानि’ के अनुसार इस बड़े काम में भी समय-समय पर अनेक विघ्न उपस्थित हुए पर ईश्वर की कृपा से उनके कारण इस कार्य में कुछ हानि नहीं पहुँची।

सन् १९१३ में कोश का काम अच्छी तरह चल निकला। वह बराबर नियमित रूप से संपादित होने लगा और संख्याएँ बराबर छपकर प्रकाशित होने लगीं। बीच-बीच में आवश्यकतानुसार संपादनकार्य में कुछ परिवर्तन होता रहा। इसी बीच में पंड़ित बालकृष्ण भट्ट, जो इस वृद्धावस्था में भी बड़े उत्साह के साथ कोशसंपादन के कार्य में लगे हुए थे, अपनी दिन पर दिन बढ़ती हुई अशक्तता के कारण अभाग्यवश नवंबर, १९१३ में कोश के कार्य से अलग होकर प्रयाग चले गए और वहीं थोड़े दिनों बाद उनका देहांत हो गया। उस समय बाबू रामचंद्र वर्मा उनके स्थान पर कोश के सहायक बना दिए गए और कार्यक्रम में फिर कुछ परिवर्तन की आवश्यकता पड़ी। निश्चित हुआ कि बाबू जगन्मोहन वर्मा, लाला भगवानदीन तथा बाबू अमीर सिंह आगे के शब्दों का अलग-अलग संपादन करें और पंडित रामचंद्र शुक्ल तथा बाबू रामचंद्र वर्मा संपादित किए हुए शब्दों को अलग-अलग दोहराकर एक मेल करें। इस क्रम में यह सुभीता हुआ कि आगे का संपादन भी अच्छी तरह होने लगा और संपादित शब्द भी ठीक तरह से दोहराए जाने लगे और दोनों ही कार्यों की गति में भी यथेष्ट वृद्धि हो गई। इस प्रकार १९१७ तक बराबर काम चलता रहा और कोश की १५ संख्याएँ छपकर प्रकाशित हो गईं तथा ग्राहकसंख्या में बहुत कुछ वृद्धि हो गई। इस बीच में और कोई उल्लेख योग्य बात नहीं हुई।

सन् १९१८ के आरंभ में तीन सहायक संपादकों ने ‘ला’ तक संपादन कर डाला और दो सहाक संपादकों ने ‘बि’ तक के शब्द दोहरा डाले। उस समय कई महीनों से कोश की बहुत कापी तैयार रहने पर भी अनेक कारणों से उसका कोई अंक छपकर प्रकाशित न हो सका जिसके कारण आय रुकी हुई थी। कोश विभाग का व्यय बहुत अधिक था और कोश के संपादन का कार्य प्रायः समाप्ति पर था अतः कोश विभाग का व्यय कम करने की इच्छा से विचार हुआ कि अप्रैल, १९१८ से कोश का व्यय कुछ घटा दिया जाए। तदनुसार बाबू जगन्मोहन वर्मा, लाला भगवानदीन और बाबू अमीर सिंह त्यागपत्र देकर अपने पद से अलग हो गए। कोश विभाग में केवल दो सहायक संपादक—पंडित रामचंद्र शुक्ल और बाबू रामचंद्र वर्मा—तथा स्लिपों का क्रम लगानेवाले और साफ कापी लिखनेवाले एक लेखक पंडित ब्रजभूषण ओझा रह गए। इस समय आगे के शब्दों का संपादन रोक दिया गया और केवल पुराने संपादित शब्द ही दोहराए जाने लगे। पर जब आगे चलकर दोहराने योग्य स्लिपें प्रायः समाप्त हो चलीं, और आगे नए शब्दों के संपादन की आवश्यकता प्रतीत हुई तब संपादनकार्य के लिए बाबू कालिकाप्रसाद नियुक्त किए गए जो कई वर्षों तक अच्छा काम करके और अंत में त्यागपत्र देकर अन्यत्र चले गए। परंतु स्लिपों को दोहराने का कार्य पूर्ववत् प्रचलित रहा।

सन् १९२४ में कोश के संबंध मे एक हानिकारक दुर्घटना हो गई थी। आरंभ में शब्दसंग्रह की जो स्लिपें तैयार हुई थीं, उनके २२ बंडल कोश कार्यालय से चोरी चले गए। उनमें ‘विव्वोक’ से ‘श’ तक की और ‘शय’ से ‘सही’ तक की स्लिपें थीं। इसमें कुछ दोहराई हुई पुरानी स्लिपें भी थीं जो छप चुकी थीं। इन स्लिपों के निकल जाने से तो कोई विशेष हानि नहीं हुई, क्योंकि सब छप चुकी थीं। परंतु शब्दसंग्रहवाली स्लिपों के चोरी जाने से अवश्य ही बहुत बड़ी हानि हुई। इसके स्थान पर फिर कोशों आदि से शब्द एकत्र करने पड़े। यह शब्दसंग्रह अपेक्षाकृत थोड़ा और अधूरा हुआ और इसमें स्वभावतः ठेठ हिंदी या कविता आदि के उतने शव्द नहीं आ सके जितने आने चाहिए थे और न प्राचीन काव्यग्रंथों आदि के उदाहरण ही सम्मिलित हुए। फिर भी जहाँ तक हो सका इस त्रुटि की पूर्ति करने का उद्योग किया गया और परिशिष्ट में बहुत से छूटे हुए शब्द आ भी गए हैं।

सन् १९२५ में कार्य शीघ्र समाप्त करने के लिए कोश विभाग में दो नए सहायक अस्थायी रूप से नियुक्त किए गए—एक तो कोश के भूतपूर्व संपादक बाबू जगन्मोहन वर्मा के सुपुत्र बाबू सत्यजीवन वर्मा एम॰ ए॰ और दूसरे पंडित अयोध्यानाथ शर्मा, एम॰ ए॰। यद्यपि ये सज्जन कोश विभागमें प्रायः एक ही वर्ष रहे थे, फिर भी इनसे कोश का कार्य शीघ्र समाप्त करने में और विशेषतः व, श, ष, तथा स के शब्दों के संपादन में अच्छी सहायता मिली। जब ये दोनों सज्जन सभा से संबंध त्यागकर चले गए तब संपादन कार्य के लिए श्रीयुत् पंडित वासुदेव मिश्र, जो आरंभ में भी कोशविभाग में शब्दसंग्रह का काम कर चुके थे और जो इधर बहुत दिनों तक कलकत्ते के दैनिक भारतमित्र तथा साप्ताहिक श्रीकृष्णसंदेश के संपादक रह चुके थे, कोष विभाग में सहायक संपादक के पद पर नियुक्त कर लिए गए। इनकी नियुक्ति से संपादन कार्य बहुत ही सुगम हो गया और वह बहुत शीघ्रता से अग्रसर होने लगा। अंत में इस प्रकार सन् १९२७ में कोश का संपादन आदि समाप्त हुआ।