पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/९

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इतने बड़े शब्दकोश में बहुत शब्दों का अनेक कारणों से छूट जाना बहुत ही स्वाभाविक था। एक तो यों ही सब शब्दों का संग्रह करना बड़ा कठिन काम है, जिस पर एक जीवंत भाषा में नए शब्दों का आगम निरंतर होता रहता है। यदि किसी समय समस्त शब्दों का संग्रह किसी उपाय से कर भी लिया जाए और उनके अर्थ आदि भी लिख लिए जाएँ तथापि जबतक यह संग्रह छपकर प्रकाशित हो सकेगा तबतक और नए शब्द भाषा में सम्मिलित हो जाएँगे। इस विचार से तो किसी जीवित भाषा का शब्दकोश कभी भी पूर्ण नहीं माना जा सकता। इन कठिनाइयों के अतिरिक्त यह बात भी ध्यान में रखनी चाहिए कि हिंदी भाषा के इतने बड़े कोश को तैयार करने का इतना बड़ा आयोजन यह पहला ही हुआ है। अतएव इसमें अनेक त्रुटियों का रह जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। फिर भी इस कोश की समाप्ति मे प्रायः २० वर्ष लगे। इस बीच में समय-समय पर बहुत से ऐसे नए शब्दों का पता लगता था जो शब्दसागर में नहीं मिलते थे। इसके अतिरिक्त देश की राजनीतिक प्रगति आदि के कारण बहुत से नए शब्द भी प्रचलित हो गए थे जो पहले किसी प्रकार संगृहीत ही नहीं हो सकते थे। साथ ही कुछ शब्द ऐसे भी थे जो शब्दसागर में छप तो गए थे परंतु उनके कुछ अर्थ पीछे से मालूम हुए थे। अतः यह आवश्यक समझा गया कि इस छूटे हुए या नवप्रचलित शब्दों और छूटे हुए अर्थों का अलग संग्रह करके परिशिष्ट रूप में दे दिया जाए। तदनुसार प्रायः एक वर्ष के परिश्रम में ये शब्द और अर्थ भी प्रस्तुत करके परिशिष्ट रूप में दे दिए गए हैं। आजकल समाचारपत्रों आदि या बोलचाल में जो बहुत से राजनीतिक शब्द प्रचलित हो गए हैं, वे भी इसमें दे दिए गए हैं। सारांश यह कि इसके संपादकों ने अपनी ओर से कोई बात इस कोश को सर्वांगपूर्ण बनाने में उठा नहीं रखी है। इसमें जो दोष, अभाव या त्रुटियाँ हैं उनका ज्ञान जितना इसके संपादकों को है उतना कदाचित् दूसरे किसी को होना कठिन है पर ये बातें असावधानी से अथवा जान बूझकर नहीं होने पाई हैं। अनुभव भी मनुष्य को बहुत कुछ सिखाता है। इसके संपादकों ने भी इस कार्य को करके बहुत कुछ सीखा है और वे अपनी कृति के अभावों से पूर्णतया अभिज्ञ हैं।

कदाचित् यहाँ पर यह कहना अनुचित न होगा कि भारतवर्ष की किसी वर्तमान देशभाषा में उसके एक बृहत् कोश के तैयार कराने का इतना बड़ा और व्यवस्थित आयोजन दूसरा अबतक नहीं हुआ है। जिस ढंग पर यह कोश प्रस्तुत करने का विचार किया गया था, उसके लिए बहुत अधिक परिश्रम तथा विचारपूर्वक कार्य करने की आवश्यकता थी। साथ ही इस बात की भी बहुत बड़ी आवश्यकता थी कि जो सामग्री एकत्र की गई है उसका किस ढंग से उपयोग किया जाए और भिन्न-भिन्न भावों के सूचक अर्थ आदि किस प्रकार दिए जाएँ क्योंकि अभी तक हिंदी, उर्दू, बंगला, मराठी या गुजराती आदि किसी देशीभाषा में आधुनिक वैज्ञानिक ढंग पर कोई शब्दकोश प्रस्तुत नहीं हुआ था। अबतक जितने कोश बने थे, उन सबमें वह पुराना ढंग काम में लाया गया था और एक शब्द के अनेक पर्याय ही एकत्र करते रख दिए गए थे। किसी शब्द का ठीक-ठीक भाव बतलाने का कोई प्रयत्न नहीं किया गया था। परंतु विचारवान् पाठक समझ सकते हैं कि केवल पर्याय से ही किसी शब्द का ठीक-ठीक भाव या अभिप्राय समझ में नहीं आ सकता, और कभी-कभी तो कोई पर्याय अर्थ के संबंध में जिज्ञासु को भी और भ्रम में डाल देता है। इसी लिए शब्दसागर के संपादकों को एक ऐसे नए क्षेत्र में काम करना पड़ा था जिसमें अभी तक कोई काम हुआ ही नहीं था। वे प्रत्येक शब्द को लेते थे, उसकी व्युत्पत्ति ढूँढ़ते थे और तब एक या दो वाक्यों में उसका भाग स्पष्ट करते थे, और यदि यह शब्द वस्तुवाचक होता था, तो उस वस्तु का यथासाध्य पूरा-पूरा विवरण देते थे और तब उसके कुछ उपयुक्त पर्याय देते थे। इसके उपरांत उस शब्द से प्रकट होनेवाले अन्यान्य भाव या अर्थ, उत्तरोत्तर विकास के क्रम से, देते थे। उन्हें इस बात का बहुत ध्यान रखना पड़ता था कि एक अर्थ का सूचक पर्याय दूसरे अर्थ के अंतर्गत न चला जाए। जहाँ आवश्यकता होती थी, वहाँ एक ही तरह के अर्थ देनेवाले दो शब्दों का अंतर भी भली-भाँति स्पष्ट कर दिया जाता था। उदाहरण के लिए ‘टँगना’ और ‘लटकना’ इन दोनों शब्दों को लीजिए। शब्दसागर में इन दोनों के अर्थों का अंतर इस प्रकार स्पष्ट किया गया है—‘टँगना’ और ‘लटकना’ इन दोनों के मूल भाव में अंतर है। ‘टँगना’ शब्द में ऊँचे आधार पर टिकने या अड़ने का भाव प्रधान है और ‘लटकना’ शब्द में ऊपर से नीचे तक फैले रहने या हिलने-डोलने का।

इसी प्रकार दर्शन, ज्योतिष, वैद्यक, वास्तुविद्या आदि अनेक विषयों के पारिभाषिक शब्दों के भी पूरे-पूरे विवरण दिए गए हैं। प्राचीन हिंदी काव्यों में मिलनेवालें ऐसे बहुत से शब्द इसमें आए हैं जो पहले कभी किसी कोश में नहीं आए थे। यही कारण है कि हिंदीप्रेमियों तथा पाठकों ने आरंभ में ही इसे एक बहुमूल्य रत्न की भाँति अपनाया और इसका आदर किया। प्राचीन हिंदी काव्यों का पढ़ना और पढ़ाना, एक ऐसे कोश के अभाव में, प्रायः असंभव था। इस कोश ने इसकी पूर्ति करके वह अभाव बिल्कुल दूर कर दिया। पर यहाँ यह भी निवेदन कर देना आवश्यक जान पड़ता है कि अब भी इसमें कुछ शब्द अवश्य इसलिए छूटे हुए होंगे कि हिंदी के अधिकांश छपे हुए काव्यों में न तो पाठ ही शुद्ध मिलता है और न शब्दों के रुप ही शुद्ध मिलते हैं।

इन सब बातों से पाठकों ने भली-भाँति समझ लिया होगा कि इस कोश में जो कुछ प्रयत्न किया गया है, बिल्कुल नए ढंग का है। इस प्रयत्न में इसके संपादकों को कहाँ तक सफलता हुई है। इसका निर्णय विद्वान् पाठक ही कर सकते हैं। परंतु संपादकों के लिए यही बात विशेष संतोष और आनंद की है कि आरंभ से अनेक बड़े-बड़े विद्वानों ने जैसे, सर जार्ज ग्रियर्सन, डाक्टर हार्नली, प्रो॰ सिल्वन् लेवी, डा॰ गंगानाथ झा आदि ने इसकी बहुत अधिक प्रशंसा की है। इसकी उपयोगिता का यह एक बहुत बड़ा प्रमाण है। कदाचित् यहाँ पर यह कह देना भी अनुपयुक्त न होगा कि कुछ लोगों ने किसी-किसी जाति अथवा व्यक्तिविषयक विवरण पर आपत्तियाँ की हैं। मुझे इस संबंध में केवल इतना ही कहना है कि हमारा उद्देश्य किसी जाति को ऊँची या नीची बनाना न रहा है और न हो सकता। इस संबंध में न हम शास्त्रीय व्यवस्था देना चाहते थे और न उसके अधिकारी थे। जो सामग्री हमको मिल सकी उसके आधार पर हमने विवरण लिखे। उसमें भूल होना या कुछ छूट जाना कोई असंभव बात नहीं है। इसी प्रकार जीवनी के संबंध में मतभेद या भूल हो सकती है। इसके कारण यदि किसी का हृदय दुखा हो या किसी प्रकार का क्षोभ हुआ हो तो उसके लिए हम दुःखी हैं और क्षमा के प्रार्थी हैं। संशोधित संस्करण में ये त्रुटियाँ दूर की जाएँगी।