पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/१००

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‘परिष्कार’ का मतलब यह नहीं है कि भाषा के स्वरूप में कुछ खराबी र गई थी, जिसे ठीक किया गया । ऐसा नहीं है । भाषा तो स्वतः शुद्ध हैं। उलमें जो ऊपरी विकार लोगों के प्रमाद ले अः राए थे, उन्हें हटा दिया रायः; बस ! गेहूँ बढ़िया हैं, परन्तु उनमें किसी कारण विजातीय पदार्थ राई- सरसों आदि मिल गए; या रेत-कंकड़ मिले गए; तो वह सच हटा दिया गया । यह परिकार है । हाँ, यदि चने कुछ मिले हैं, तो और बात है । स्वाद बढ़ेगा, बदलेगा ! परन्तु ऐसी चीजें न रहने दी जाएँ, जो स्वाद के सार्थ स्वास्थ्य भी बिगाड़े ! आचार्य द्विवेदी ने ज लेखन-संन्यास लिया, हिन्दी-अस्युदय का स्वर्णयुग अपनी उषः-आभा दमका रहा था । सह लेख के अंग्रेजी से हिन्दी की अोर राष्ट्रीय भावना से झा रहे थे । राष्ट्रीय जागरण का बेला थी । १६२५ से १९३५ तक हिंन्दी में लेखकों की नई भर्ती बड़े वे से हुई 1 ऐसे साथ में एक क्या, कई जागरूक पथ-निर्देशकों की जरूरत थीं, जो भूले-भटके पथिकों को मदद पहुँचाते, उन्हें भटकने से बचाते । परन्तु हुशा यह कि महान् पथ-प्रदर्शक ने लेखनी-संन्यास ले लिया और अपने गाँव ( दौलतपुर- रायबरेली } जाकर एकान्त-वास करने लगा ! भारी थकान थी-अंग-अंग शिथिल हो चुके थे ! इस समय राष्ट्रीय जागरण के कारण संस्कृत की श्रीर अभिरुचि देश की बढ़ी । हिन्दी-लेखकों का झुकाव उधर हुश्रा । परन्तु पूरी जानकारी के अभाव में लोग गलत-सलत शब्द-प्रयोग करने लगे । ‘अभिज्ञ को ‘भिज्ञ' लिखा जाने लगा और ‘विकलित' के अर्थ में 'मुकुलित' चलने लया ! इसके साथ ही वाक्य-विन्यास अंग्रेजी के हँ पर होने लगा, जिससे हिन्दी का रूप न देंग से विकृत (अति वित) होने लगा ! पत्र-पत्रिकाओं में तथा पुस्तकों में ऐसे भी लंबे-लंबे वाक्य आने लगे, जिनमें सब कुछ तो अंग्रेजी साश में तथा रोमन लिपि में और अन्त में केवल क्रिया-पद था’ ‘है . ‘होगा' आदि नइगरी-हिन्दी में ! इस समय एक दूसरे ही ( सुधार ) व्यक्ति ने झलम उठाई और भाषा-परिष्कार का कुछ काम किया । पत्र-पत्रि- काओं में उसके लेख देख कर प्राचार्य द्विवेदी ने अपनी प्रसन्नता प्रकट की, जिससे उसे बल मिला । सन् १९३८-३६ तक उसने ऐसे बीस लेख लिखे- छपाए और फिर परिष्कार में स्थायित्व लाने के लिए उसने एक पुस्तक ही लिख कर छपवा दी । यह पुस्तक हिन्दी में खूब चली और सभात हुई। डा० सम्पूर्णानन्द जैसे विद्वानों ने लिखा कि इस पुस्तक से मैंने बहुत कुछ