पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/१०१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
(५६)

सीखा है। इसी तरह पं० माखन लाल चतुर्वेदी, डा० अमरनाथ झा तथा श्री भैथिली शरण गुप्त आदि ने इसकी असाधारण उपयोगिता स्वीकार की। इस पुस्तक के प्रसार से हिन्दी की वह विकृति दूर हुई ।। | इस उद्योग के लगभग १० वर्ष बाद काशी के विद्वद्वर बाबू रामचन्द्र वर्मा ने इधर ध्यान दिया और एक अच्छी पुस्तक अपने हिन्दी-संशोधन पर लिख कर प्रकाशित कराई। इससे भी बड़ा काम हुआ । हिन्दी-जगत् का ध्यान शब्दशुद्धि की ओर एक झटके के साथ आकर्षित हुआ है। परन्तु इस समय एक और प्रकार की विकृदि हिन्दी में आने लगी। शब्दशुद्धि के झोंके में लोग यह भूल बैठे कि हिन्दी एक स्वतंत्र भाषा है, वह संस्कृत से अनुप्राणित है, जैसे अन्य भारतीय भाषाएँ; परन्तु वह अपने क्षेत्र में सार्वभौम सत्ता रखती है । हिन्दी की अपनी चाल है, अपनी प्रकृति है । संस्कृत का सब कुछ अखें बन्द कर के हिन्दी न ले लेगी । कहीं से भी कुछ लेने में एक विवेक रखा जाता है । इस चीज पर ध्यान न देकर हिन्दी में ‘अन्तराष्ट्रिय' जैसे शब्द चलाए जाने लगे ! इस प्रयास में कोई अराष्ट्रीय भावना न थी, न पाण्डित्य का अभाव ही इसमें कारण था, केवल हिन्दी की प्रकृति पर ध्यान न देने के कारण यह उपक्रम था ! इस प्रवाह को रोकने का भी उद्योग उसी ( साधारण ) व्यक्ति ने किया और बहुत जल्दी वह प्रवाह जहाँ का तहाँ रुक गया !

हिन्दी की प्रकृति

यहाँ हिन्दी की प्रकृति समझ लेनी चाहिए। जैसे एक व्यक्ति की प्रकृति होती है, उसी तरह भाषा की भी समझिए । प्रकृति-विरुद्ध कोई चीज यहाँ गृहीत न होगी । एक उदाहरण लीजिए । संस्कृत में ‘विस्तर' तथा विस्तार ये दो शब्द एक ही धातु के के ही अर्थ में चलते हैं । विषय-भेद से प्रयोग-भेद है । शब्द-संबंधी विस्तार के लिए संस्कृत में ‘विस्तर चलता है---तत्तु मया विस्तरेण प्रोक्तम् । यहाँ ‘विस्तरेणु' की जगह ‘विस्तारेण न रखा जाएगा, गलत हो जाएगा । परन्तु हिन्दी में इस संस्कृत-वाक्य का अनुवाद होगा-वह तो मैंने विस्तार से कह दिया हैं । यहाँ ‘विस्तर से करें, तो हिन्दी गलत हो जाएगी । संस्कृत में शुब्द-संवन्धी विस्तार से अन्यत्र ‘विस्तार' शब्द चलता है-'वनस्य विस्तारः--