पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/१०५

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जे-जाल' की खराबी उर्दू में यहाँ तक है कि बहुत लोग वर्षों शिक्षा 'पाने तथा लुगातों ( शब्द-कोशों } को कीड़ों की तरह चाट जाने पर भी ‘जे- जाल’ का भेद ठीक-ठीक नहीं जान पाते ! कितनी ही बार वे इस झगड़े में पड़ते हैं कि अमुक शब्द ‘जाल से है, या जे' से ! जब स्वयं उर्दू जानने वालों की ( उर्दू में ही ) यह हालत है, तो फिर हिन्दी को पराए काँटों में क्यों घसीटा जाए ? 'लजत’ ‘जाल से होती है, लाजिम’ •जे से और जरूर ज्वाद से और “जाहिर’ ‘जोय” से ! हिन्दी में ‘ज' के नीचे बिन्दी लगा देने से क्या सब का उच्चारण ‘शुद्ध हो जाएगा ? इससे ‘जाल’ ‘ज्वाद और ‘जोय की क्या पहचान रही ? यदि 'जाल' ज्वाद' 'जोय में फर्क करना मंजूर नहीं, तो ज' के नीचे बिन्दी लगाने की जरूरत नहीं और यदि उन सब में भेद समझा जाता है, तो फिर 'जाल' 'ज्वाद’ ‘जोय' की भी कुछ पहचान रखनी चाहिए। हमारा प्रश्न है कि इस बिन्दी से उद न जानने वालों को क्या उपकार होता है ? वे कैसे जानें कि किस शब्द के नीचे बिन्दी लगानी चाहिए | क्या बिन्दी लगा-लगा कर उनके लिए उर्दू-शब्दों का कोश तयार कर दिया जाएगा और हिन्दी वाले उस कोश को ‘मियां मिट्टू' की तरह दिन भर इट! करेगे ? यदि ऐसा होगा, तो खुदा के फजल से हिन्दी उर्दू से भी सरल हो जाएगी और तीन महीने की जगह तीन- तीए नौ वर्षों में सीखी जाएगी । और, यदि उर्दू न जानने वालों को बिन्दी लगानी ठीक से न आएगी, तो हिन्दी में लबड़धोधों मच जाएगी ! कोई बिन्दी लगाएगा, कोई नहीं लगाएगा। वृन्दावन-निवासी पण्डित राधाचरण गोस्वामी ने नारारीदास-कृत ‘इश्क-चमन’ छापी था। उसमें उन्होंने उर्दू शब्दों में खूब ( नीचे } बिन्दी की भरमार की थी । यहाँ तक कि जिन शब्दो के नीचे बिन्दी नहीं लगानी चाहिए, उनके नीचे भी लगा दी थी ! स्वर्ग- वासी पण्डित प्रतापनारायण मिश्र उसे पढ़ते-पढ़ते लोट-पोट हो गए थे और कहा था कि यह बिन्दी की बीमारी हिन्दी वालों को अच्छी लगी ! यह इनको दूर तक खराव करेगी !' | एक हिन्दी के पंडित वकील' में बड़ा काफ' बोलते थे | वे समझते थे कि बड़ा काफ' बोलने से ही उर्दू हो जाती हैं ! इसी तरह बिन्दी की बीमारी में पड़ कर उर्दू न जाननेवालों को बड़ी ठोकरें खानी पड़ती हैं । | उर्दू में 'ते' होती है, तोय' होती है। दोनों के उच्चारण का भेद हिन्दी में कैसे प्रकट किया जाएगा ? ‘से सीन' और 'स्वाद’ इन तीनों अक्षरों का