पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/१०६

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उचार; एक-सा ही होता है। इन का भेद हिन्दी में किस तरह प्रकट किया जाएगा ? 'अलिफ’ और ‘ऐन” का भी कुछ भेद नहीं मालूम पड़ा ! इस प्रकार की घसीटन में हिन्दी को क्यों हँसाया जाए ? सन् १९.००की १९ ता० के भारत मित्र' में गुप्त जी ने ये विचार प्रकट किए थे । गुप्त जी उर्दू-फारसी के बड़े भारी विद्वान् थे; उर्दू के कोहेनूर जैसे पत्रों के सम्पादक रह चुके थे। । सम्मेलन’ के शिमला-अधिवेशन ने अपने एक निर्णय से स्व० गुप्त जी के उपयुक्त विचारों पर अपनी मुहर भी लगा दी । मतलब यह किं ज’ ‘फ' आदि के नीचे बिन्दी लगा कर फारसी आदि के तप शब्द हिन्दी में चलाने का उद्योग व्यर्थ, हानिकर तथा उपहासास्पद भी है। हिन्दीवालों का उच्चारण ही वैसा ही नहीं। फ़ारसीवालों का उच्चारगर् हमारे उच्चारण से भिन्न है । हाँ, यदि हम फारसी लिखें-पढे, तब वैसा उच्चारण करने का भरसक यत्न जरूर करेंगे । | यही प्रकृति-अनुगमन शब्दों के आदान में भी है। हिन्दी ने कभी संकचित मनोवृत्ति नहीं रखी है; परन्तु अपना स्वरूप बिगाड़ लेना भी पसन्द नहीं । शब्द तो सभी जगह से हिन्दी ने लिए हैं; लेती ही है । सन् १९.०४. में आचार्य द्विवेदी ने 'सरस्वती' में लिखा थाः- हिन्दी को कालसह बनाने के लिए बहुत जरूरी है कि इसकी रचना व्याकरण-विरुद्ध न हो और इसमें सिर्फ ऐसे शब्दों का प्रयोग हो, जो विशेष व्यापक हों; अर्थात् जिन्हें अधिक प्रान्तों के आदमी समझ सकें । देश भर में एक भाषा होगी, या नहीं; और होगी, तो कब होगी; यह निश्चय-पूर्वक नहीं कहा जा सकता । परन्तु तब तक हिन्दी को अधिक व्यापक बनाने में लाभ हैं । इस बात को सभी स्वीकार करेंगे। अतएव हिन्दी के साहित्य में प्रान्तीय ( प्रादेशिक ) और क्षणभंगुर शब्दों का आना अच्छा नहीं । जो शब्द किसी विशेष प्रान्त के ही लोग समझ सकते हों, उन्हें ‘प्रान्तज' और जो किसी कारण-विशेष से थोड़े ही दिन के लिए उत्पन्न हो गए हौं, उन्हें क्षणभंगुर कहते हैं । ऐसे शब्दों का प्रयोग न होना चाहिए। संस्कृत के सरल शब्द और ऐसे विदेशी शब्द, जिन्हें सब लोग समझते हैं, प्रयुक्त होने चाहिए। संस्कृत तक में विदेशी शब्द हैं। शब्द चिरस्थायी और सबके समझने लायक होने चाहिए।”