पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/१०७

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यह राष्ट्रभाषा का व्यावहारिक रूप है । संक्षेप यह कि अर्थबोध तथा हिन्दी का चिरप्रतिष्ठित रूप ध्यान में रख कर शब्दों का ग्रहण-प्रयोग सावधानी से करना चाहिए। आचार्य द्विवेदी ने व्याकरण-सम्मन भाषा पर जोर दिया है। इस पर भी थोड़ा विचार कर लेना चाहिए। व्याकरण और सारा व्याकरण और भाषा की जगह भाषा और व्यकरण कइनः अधिक अच्छा है; क्योंकि पहले भाषा बनती है, तब उसका व्याकरण बनता है । परन्तु यहाँ प्रकृत व्याकरण है, उसी की चर्चा करनी है; इस लिए बैसा शीर्षक दिया गया है---प्रकृत को प्रमुखता । । जब कोई भाषा विकसित होकर पूर्ण हो जाती है, जब वह अपने काम काज में किसी दूसरी भाषा की मुहताज नहीं रहती और उसमें साहित्य-रचना भी होने लगती है, तब उसका व्याकरण बनता है---तब उसके अंग-प्रत्यंग का विश्लेष-निरूपण किया जाता हैं । यही व्याकरण है। जैसी भाषा है, उसका ज्यों की त्यों रूप व्याकरण में आना चाहिए। भाषा की चाल को व्याकरण बदल न देगा । यह उसकी शक्ति से बाहर की बात है । व्याकरण लक्ष्य- प्रधान शास्त्र है । जैसा लक्ष्य ( शब्द-प्रयोग ) लोक-प्रचलित है, उसका वैसा ही लक्षण बनाना पड़ेगा-- उसका वैसी ही निरूपण करना होगा । यदि कोई वैय्याकरण अपने माण्डिल्य के दप से व्याकरण कुछ का कुछ बना देगा, तो भाषा की प्रकृति उसकी अवज्ञा कर देगी-उसे मानेनी नहीं। महाकवि श्री इर्ष ने बहुत ठीक कहा है:- भक्तुं प्रभुकरणस्य दर्पम्, पदयोगध्वनि एष लोकः ।।

  • शशो युदस्याऽस्ति' शशी' ततोऽम्,

एवं ‘मृगोऽस्यास्ति, ‘मृगीति’ दोक्तम् । व्याकरण का दर्प-अंग, पद-प्रयोग के मार्ग में, जनता र देती है ! शश जिसके हो, वह ‘शशी' कहलाता है । चन्द्रमा ‘शशी' नाम से प्रसिद्ध है, जिसे 'शशाङ्क' भी कहते हैं और माङ्क' भी । परन्तु “शशी' की तरह उसे 'मृर्ग’ कोई भी नहीं कहता; यद्यपि व्याकरण से मृग' भी बनता है।