पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/११

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
(६)

किशोरीदास बाजपेयी के जीवन में हम क्या पाते हैं। उन्हें अपने साहि- त्यिक जीवन के पिछले तीस साले चिन्ता और आर्थिक संवर्षों में बिताने पड़े हैं ! भला, जो नून-तेल-लकड़ी की चिन्ता से परेशान हो, वह सरस्वती की एकान्त साधना निश्चिन्त होकर कैसे कर सकता है ? पर आश्चर्य है कि इतने पर भी कई अनमोल पुस्तकें उन्होंने हमें दी हैं ! हिन्दी साहित्य के कितने ही विप हैं, जिन पर खुलकर लिखने के उनके जैसे अधिकारी नहीं हैं। इसे सार्वजनिक रूप से प्रकट की गई में सफाई या वीरतनामा भी समझ सकते हैं । अपनी सफाई में उन्होंने कबूल किया है कि यह गर्व बहुत करता है।” (पर) “शर्व की भावना प्रकृति था भगवान् ने पैदा की है। इस व्यक्ति का झगड़ालूपन ही वैती असफलता का झारण है ।* | "गर्व करता है’ ‘झगड़ा है इदि कह कर हम किशोरीदास जी जैसी प्रतिभाओं की उपेक्षा करके अनेवाली पीढ़ियों के सामने मुँह नहीं दिखा सकते । किशोरीदास जी यदि वैसे ही चुपचाप चले जाते, जैसे बालू की पद- रेख, तो दूसरी बात थी; पर उन्होंने जो थोड़ी-सी चीजें हमें दी हैं, वे उनकी असाधारण मता का परिचय देंगी और फिर कैसे हम उनके समकालीन अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो सकेंगे ? इस वक्त हमें दसवीं सदी के अपभ्रंशः के महान् कवि पुष्पदन्त याद आते हैं। वे भी उन्हीं ‘दुर्गुणों के शिकार थे, जिनके हमारे वाजपेयी जी हैं ! पुष्पदन्त परिवार-मुक थे, यह उनके पक्ष में अच्छी बात थी । किशोरीदास जी भी कभी पुष्पदन्त जैसे ही फक्कड़ हो धूमते रहे । पुष्पदन्त अपने नाजर-मन्त्री भरत के पास अपने पहुँचने का वर्णन करते हैं :- ........•••••••••••••••••| महि परिभमन्यु नेपाडि एयरु । अवहेरि ख-यण गुरा-महन्तु । दियहेहिपइयु पुष्फयतु । दुगस दोहरपंथेण री । बर्यतु जेम देहे खीणु ।” धूलिधूसरित थके-माँदे अश-शरीर पुष्पदन्त को देखकर मन्त्री ने पूछा---

    • श्राप क्यों झिली सुन्दर विशाल नगर में नहीं प्रवेश करते ??? जवाब में

अभिमान-मेरु’ पुष्पदन्त ने कहा:---

  • त सुशिवि भराई अहि मणिमेरु । चरि खजइ गिरिकन्दरिकसेरु ।।

उ डुजी-भउँहा-बं कियाई । दीसन्तु कलुस-भावकियाई ।।

  • *साहित्यिक जीवन के अनुभव और संस्मर’