पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/११३

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सौभाग्य समझिए, चाहे दुर्भाग्य, इन व्याकरणों के मूलभूत सिद्धान्त मेरी समझ में न आए ! इन्हीं के अधार पर वे सब पुस्तकें बनीं थीं, जो पाय रूप से परीक्षाओं में चल रही थीं और मुझे भी पढ़ानी पड़ती थीं । कल समझ में न आने पर आकर-अन्य' देखे, फिर भी समाधान न हुआ । गुरु जी से ( जबलपुर जाफर ) दो बार भेंट की; परन्तु फिर भी मेरा भ्रम-सन्देह दूर न हुआई ! अपनी जिज्ञासा-मान्यता पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित कराई। अाचार्यं द्विवेदी जी ने वह सब पढ़ कर प्रसन्नता प्रकट की । तब कुछ बल मिला । विचार मँजते गए, पक्के होते गए। सन् १९४३ मैं ‘ब्रजभाषा का व्याकरण' लिख कर मैंने प्रकाशित कराया। इस की लम्बी भूमिका में मैं ने सभी प्रचलित व्याकरणों की आलोचना की और अपना नया मार्ग भई प्रदर्शित कर दिया । इस पुस्तक की एक-एक प्रति श्रदरणीय वाजपेयी जो को तथा गुरु जी को रजिस्टरी पैकेट से मैंने तुरन्त भेज दी और सम्मति की इच्छा प्रकट की । गुरु जी ने तो कोई उत्तर न दिया, पर वाजपेयी जी ( पण्डित अम्बिका प्रसाद वाजपेयी ) ने मेरी इस पुस्तक की बहुत प्रशंसा की और इसके भूमिका--भाग को ‘हिन्दी के व्याकरण का व्याकरण’ बताया । यह ध्यान देने को बात है कि गुरु जी के साथ ही वाजपेयी जी के व्याकरण-ग्रन्थ की भी आलोचना भूमिका-भाग में हो गई थी । इसमें सन्देह नहीं कि आचार्य द्विवेदी की ही तरह आचार्य बाजपेयी ने भी सरस्वत-धर्म का पालन किया और खुल कर वस्तुस्थिति प्रकट कर दी । जो कुछ उन्हों ने समझा, साफ-साफ कह दिया । | मैं पाँच वर्ष तक प्रतिक्रिया देखता रहा, सर्वत्र सन्नाटा रहा ! इसे चाहे उपेक्षा समझिए और चाहे ‘मौनं सम्मतिलक्षणम् । अन्ततः सन् १६४९ में राष्ट्रभाषा का प्रथम व्याकरण' लिख कर मैंने प्रकाशित कराया। अध्ययन की यह दशा कि साहित्य-सन्देश' ने आलोचना में लिखा-प्रारम्भिक श्रेणियों के लिए यह व्याकरण लिखा गया है, पर क्लिष्ट हो गया है । जो चीज हिन्दी के प्रौढ़ विद्वानों को सोचने-समझने के लिए ( एक रूप-रेखा के रूप में ) दी गई थी, उसे प्रारम्भिक श्रेणियों के लिए समझा गया---'प्रथम' शब्द देख कर ! एक ने लिखा था---‘हिन्दी के व्याकरण तो बहुत हैं, पर जब से हिन्दी राष्ट्रभाषा हुई है, तब से यह पहला ही व्याकरण है और इसीलिए 'प्रथम' शब्द दिया गया है !'