साधारण शब्दों के सर्वजन-प्रसिद्ध प्रयोगों को समझाना भी पिंष्ट-पेषण
ही है । प्रौढ़ पाठकों की पुस्तक में वह ठीक नहीं । हाँ, विवादास्पद तथा
दुरूह विषयों की उपेक्षा न की जाएगी । ऐसे ही स्थलों में शिष्ट-उद्धरण भी
दिए जाएँगे । साधारण 'हम ने सब को देख लिया' समझाने के लिए भारतेन्दु
या प्राचार्य द्विवेदी को गवाही में घसीटते फिरना किस झाम का !
पिछले हिन्दी व्याकरण की आलोचना भी इस ग्रन्थ में न की जाएगी,
अन्यत्र बहुत हो चुकी है ! बहुत ही जरूरी होने पर कहीं किसी सर्वमान्य
वैथ्याकरण झा या उसकी कृति का उल्लेख हो, तो यह विशेष चीज है ।
साधारणतः जैसे उल्लेख-उद्धरयों से पृष्ट न बढ़ाए जाएँगे ।
प्रतिपाद्य विषयों में भी काट-छाँट जरूरी है। संस्कृत की सन्धियाँ हिन्दी
में प्रायः सब चलती हैं, परन्तु विवेक के साथ | काव्य पड़नेवाले में कवि
के साथ सहानुभूति चाहिए यहाँ ‘सह' तथा 'अनुभूति में सन्धि हिन्दी को
पसन्द नहीं है—‘सह-अनुभूति’ चाहिए। अनुभूति वैसी ही चाहिए। तत्र
कवि के भाव समझ सकेगा पाठक । सहानुभूति' तो हमदर्दी हुई ! कवि कौन
सी आपदा में है, जो पाठक उस से सहानुभूति करे ! और, इस सहानुभूति
से कोई काव्य क्या समझ लेगा ?
इसी तरह ‘पुनारमण' जैसी सन्धि हिन्दी की प्रकृति के विरुद्ध है । इस
तरह की सन्धियों के नियम आदि देना च्योरख-धन्धा है। एचोऽयवयिावः
तथा एडः पदान्तादति' आदि में निर्दिष्ट सन्धियों का वर्णन भी ( हिन्दी के
व्याकरणों में } अनावश्यक है। हिन्दी में पका-पकाया माल चयन-यन
आदि रूप से अता-चलता है। इसके लिए चे+अन' तथा ने +अन' आदि
रखना'-बताना बेकार है । जो संस्कृत जानते हैं, उनके लिए तो यह सब व्यर्थ
है ही, हिन्दीवाले ये क्या समझेगे' और 'अन' क्या समझेगे ? आवश्यकता
- भी क्या ? बने-बनाए ‘न्वयन’ ‘नयन' आदि ले लिए और बस | छोटे-छोटे
छात्र'चे-अन’ रटते-रटते उल्लू बन जाते हैं । परीक्षा के लिए रटना पड़ता है। सो, वह सब हिन्दी के लिए अवकर-निकर है, व्यर्थ का वितंडा हैं। वण के स्थान बताना तो ठीक, स्पष्ट है । और ‘अल्पप्रार’ ‘महाप्राण थे दो ‘प्रयल' भी ठीक; परन्तु इनके अनन्तर और जो जंजाल हैं हिन्दी के लिए, उसे क्यों लिखा जाए १ देखिए, कुछ आप स्पष्ट समझ-समझा सकेंगे ?