पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/१२०

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हिन्दी के विकास की सारणी

         आद्य या मूल भारतीय-आर्यभाषा

प्रथम संस्कृत विदों की भाषा प्रथम प्राकृत | [ वैदिक युग की साधारण द्वितीय संस्कृत जनभाधा ] । ब्राह्मण-ग्रन्थों की और उए- निषदों की भाषा ] द्वितीय प्राकृत तृतीय संस्कृत || जिस का ‘पालि' रूप प्राकृत है। और अन्य साहित्यिक रूप व्यंजन-लोप । जो आज भी अपने निखरे हुए तथा कार-प्रियता से विकृत कर रूप में लौकिक संस्कृत नाम से दिए गए हैं। ] प्रसिद्ध है; पाणिनि द्वारा व्यवस्थित, जिसमें कालिदास आदि की तृतीय प्राकृत रचनाएँ हैं | | [ जिसे 'अपभ्रंश' कहते हैं और जिस के विभिन्न प्रादेशिक भेदों से आज की भारतीय भाषाओं का विकास है। यानी यही प्राकृत विक- सित-व्यवस्थित होकर अाज की भार- तीय ( हिन्दी आदि } भाषाओं के रूप में स्थित है। ] खड़ी बोली हिन्दी [ विदेशी लिपि में और विदेशी [ हिन्द की झाषा हिन्दी, जिसे रँग-र्दैग में हिन्द की { किसी समय ) नागरी लिपि में सम्पूर्ण राष्ट्र की भाषा ] सामान्य-भाषा के रूप में वरण किया गया है। इसी भाषा का विवेचन | [ विदेशी प्रभाव कुछ कम कर के यह ‘हिन्दी शब्दानुशासन' है । ] और फारसी तथा नागरी दोनो लिपियों में सरकारी भाषा के रूप में ) प्रस्तावित ]