पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/१२९

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भी नहीं ! यह स्वर-संकोच की प्रवृत्ति क्यों ? एष शब्द-स्वभावः', या जन- प्रवृति ऐसी, कहा जाएगा । हूँढने से इस प्रवृत्ति का कारण भी कदाचित् मिल जाए। 'ऋ' तथा 'ल' का उच्चारण श्रीज अन्य स्वरों की तरह स्वतन्त्र नहीं है। र' व्यंजन में इ’ की ‘मात्र लगा देने से 'रि' रूप जो बनता है, उसके उच्चारण में और स्वर ‘ऋ' के उच्चारण मे क्या अन्तर है ? इसी तरह लु र तथा “इ” को मिला कर ‘लि' लिखें, तो इसके उच्चारण में और स्वर 'लु' के उच्चारणा में क्या भेद है ? तब उनमें स्वरत्व कहाँ रही ? अ, श्रा, इ, ई, उ, ऊ, ए, ऐ, ओ, औं इन स्वरों में एक भी ऐसा नहीं है, जिसके उच्चारण में कोई व्यंजन अपनी गन्ध देता हो । इन में से किसी भी स्वर का उच्चारण किसी भी व्यंजन की सहायता से श्राप नहीं कर सकते, जैसा कि '५' तथा 'इ' को मिला कर ‘ऋ' का उच्चार प्राप्त हो जाता है । सम्भव है, इसी लिए ऋ उड़ गया हो ! जब पृथक् स्वतन्त्र सत्ता ही न रही, तब उपेक्षा ! सम्भव है, ‘कृ’ के उड़ने में भी यही कारण रहा हो | परन्तु मूल भाषा में ( तथा वैदिक संस्कृत में भी ) 'लु' का कोई स्वतन्त्र उच्चारए अवश्य रहा होगा । 'ऋ' का भी कोई विशेष उच्चारण रहा होगा । प्रयोगाभाव से आगे चलते-चलते वह उच्चारण जाता रहा । लिपि में उसके सकेत 'ऋ' ‘लु’ बने रहे । इन संकेतो के वर्तमान उच्चारण में कहीं कोई अंश उस मूल उच्चारण का होगा, हम नहीं कह सकते । महाराष्ट्र आदि में 'ऋ' का उच्चारण ‘क’ जैसा होता है। मातृचरण' को वहाँ ‘मात्रुचरण जैसा बोलते हैं। इस ‘क’ उच्चारण को भी 'ऋ' स्वर का सही उच्चारण नहीं माना जा सकता ; क्योकि वही अनुपपत्ति यहाँ भी है। 'र' में 'उ' लगा कर *** उच्चारण ।। कुछ भी हो, 'ऋ' स्वर हिन्दी के गठन में नहीं है। संस्कृत ( तद्रूप) शब्दों में ही वह यहाँ रहता है । इसका बहिष्कार वैसे शब्दों में सम्भव नहीं है । 'ऋता' को 'रिता' लिख दें, तो अर्थ हीं गड़बड़ में पड़ जाएगा ! संस्कृत में “ऋ' को रहना अनिवार्य है, भले ही उच्चारण भूल गए हों । वहाँ ऋघटित शब्दें की अनन्त संख्या है, जो ‘रि’ लिखने से एकदम नष्ट-भ्रष्ट हो जाएँगे । इस लिए “ऋ' का रहना अनिवार्य-आवश्यक है। अंग्रेजी में अनन्त शब्द ऐसे हैं, जिनके अवयवों का उच्चारण कुछ से कुछ हो रहा है । जान पड़ता है, पहले वही उच्चारण होगा; जिसके लिए वैसा लिपि-विन्यास है। कालान्तर