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में उच्चारण बदल गया; पर लिखावट नहीं बदली गई। बदल दें, तो पुराना साहित्य बहुत दूर पड़ जाएगा, नष्ट हो जाएगा! बहुत से (जज, नाइफ आदि) अंग्रेजी के शब्द ऐसे हैं, जिनकी लिखावट में अनेक ऐसे वर्ण दिए रहते हैं, जिनका कोई उच्चारण ही नहीं! इन ‘मृत‘ वर्गों को भी अंग्रेजी ने इस लिए चिपटा रखा है कि उससे श्रृंखला बनी हुई है। हिन्दी का सम्पूर्ण शब्द स्रोत संस्कृत के हिमालय से निःसृत है। इस लिए हिन्दी की वर्णमाला में भी ‛ऋ' की अनिवार्य सत्ता है। ‘लृ‘ में वह बात नहीं। इसी लिए यहाँ (वर्णमाला में) इसे नहीं रखा गया।

‛ऋ‘ के उच्चारण की बात छोड़ दीजिए। हमें उसका सही पता नहीं। जो उच्चारणा आज है, ‛मू-तालु‘ का है; यानी ‛द्विवर्णीय‘ उच्चारण है। ‛र्‘ तथा ‛इ‘ का उच्चारण श्रुत होता है। इसी लिए पाणिनि-व्याकरण के महान् व्याख्याताओं ने ‛ऋ‘ के लोप में ‛द्विवर्णलोप‘ माना है। ‛इ‘ ‛उ‘ आदि के लोप में किसी ने भी ‘द्विवर्णलोप‘ नहीं लिखा-माना। यह ‛द्विवर्णाता‘ ही तो सिद्ध करती है कि ‛ऋ‘ का उच्चारण हम भूल गए। इसका मतलब यह हुआ कि इस प्रमुख स्वर का उच्चारण बहुत दिन पहले (संस्कृत के उन महान् वैय्याकरणों के समय में भी) यही था, जो आज है।

‛ऋ’ के अतिरिक्त शेष मूल स्वरों का उच्चारण मुख के विभिन्न भागों में जिस क्रम से सम्पन्न होता है, उसी क्रम में वर्णमाला में उन्हें रखा गया है― अ, इ, उ। भीतर से शब्द उठते ही जहाँ पहले आकर टकरता है, वह स्थान ‘कुंठ’ है। कंठ द्वारा उच्चरित स्वर ‛अ’ सबसे पहले संस्कृत तथा हिन्दी की वर्णमाला में हैं। पाणिनि का प्रथम वर्णमाम्नाय-सूत्र है–‛अइउण्’। इस सूत्र में तीनों मूल स्वर आ गए हैं, जिनका स्वतन्त्र उच्चारण ज्यों का त्यों बना हुआ है। ‛ऋ’ तथा ‘लृ’ को इनसे पृथक् अगले स्वतन्त्र सूत्र में पाणिनि ने रखा है-‛ऋलृक्’। इसमें ‛ऋ’ तथा ‘लृ’ ग्रथित हुए हैं। उन तीन मूल स्वरों से इन दो मूल स्वरों को अलग क्यों रखा गया? और भी कारण हो सकता हैं, परन्तु एक कारण यह भी कि उन तीनों का उच्चारण ज्यों का त्यों बना हुआ है और इन दोनों का लुप्त हो गया है। इसी लिए इन दोनो की उन तीनो से अलग वस्ती बनाई गई।

‘कंठ’ के अनन्तर ‛तालु’ है। ‛इ’ का उच्चारण तालु से होता है। इसलिए वर्णमाला में ‘अ’ के बाद ‛इ’ को रखा गया है। ‛उ’ का उच्चारण ओष्ठ से होता है। इसी लिए ‛इ’ के अनन्तर इसे स्थान मिला है। उच्चारण