पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/१३२

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है । संस्कृत में भी नहीं है । पहले अवश्य कोई लिपि-संकेत रहा होगा, जो काम व्यवहार पड़ने के कारण लुप्त हो गया होगा। अब तो प्लुत अभिव्यक्त करने के लिए तीन'का अंक (३} आगे बना देते हैं--‘ओ३म् । यानी 'ओ' को कुछ खींच कर यहाँ बोलना है। इसी तरह मजदूर ने जोर से आवाज दी- राम ३ ३’ ‘ओं ३ रास ३' । अाजकल राम के ए ए’ और ‘राम अ अ * यः *राऽऽऽ' जैसा भी लिख कर कोई-कोई प्लुत प्रकट करने लगे हैं। इन

  • कटों से तो तीन का अंक ही अच्छुः ! ' यई चिह्न भी ठीक बँचता है;

क्योंकि छन्दशास्त्र में यह एक ‘मा क’ चिलू है । हृत्व में एक मात्रा, दीर्घ में दो और छु में जोन । मात्रा काढ़ की है । ह्रस्व उच्चारण से कुछ अधिक झाला दीर्थ में लाता है, इस लिद उसके दो माएँ । प्त में कुछ श्रौंर अधिक झाल उड़ता है, इसलिए तीन सात्रा। इस हिसाब से प्लुत में छर र पॉइ मात्रा भी हो सकी हैं । ५० रन ठाकुर जैसे संगीताचार्य के लाप' में एक-एक कर की छह-छह था सात-सात मात्राएँ भी उच्चार की दृ2 से, उस ईसाद से, हो सकती हैं और जींस भी इन्तु सब के लिए 'तीन' ही मात्राएँ प्रकट करने की चाल हैं। दो से लाये बहुव- चन है, चाहे जितनी संख्या हो । '३से बहुत्व प्र ङ्कट होता हैं, दो से आगे चाहे जितना । ये ‘श्रा’ ई, ऊ' उन मूल रूप से पृथक्रू नहीं हैं। उन्हीं के दीव उच्चा- रण हैं । स्थान-भेद से ३-भेद होता है । यहाँ वैसा नहीं है । अ-श्रा, के उधारण में स्थान-भेद नहीं है। इसी तरह इई” तथः 3-ऊ' की बात समझिए । दीर्घता या गुरुतः प्रकट करने के लिए सात्राओं की स्थिति था रुख दाहिनी ओर हैं । दाहिना झंश शक्ति अधिक लक्ष है । ह्रस्व मों का रुख या स्थिति बाई ओर है। बाम निर्बल होता है न ? सो, भूत स्वर में चार हुए, “ऋ' को ले कर । संयुक्त स्वर दार ही संयुक्त स्वर हैं- | ए, ऐ, श्रो, थ्र 'अ' तथा 'इ' के मेल से ‘ए’ बना है। 'अ' और 'ए' मिल कर ‘ऐ’ ! + उ=*श्रो’ और अ + श्रो=“औ' ।