ना' का 'उतना’ और ‘एतना’ का इतना'। इसी तरह केतना का कितना
बन गया है। राष्ट्रभाषा में या तो पूरा ‘ए’ और ‘श्रो’ बोलते हैं, या फिर
'इ' और 'इ'।
| यह भी सम्भव है कि राष्ट्रभाषा ने पहले ‘इयान्’ ‘कियान्” ( इयत्-
कियत् ) से इतना'-'कितना’ शब्द बनाए हों, जो पूरब में ‘अतना’ ‘कतना’
हो गए हौं ! ।
'ऐ' तथा 'श्रौ' के भी द्विविध उच्चारण हैं । बहाँ ( राष्ट्रभाषा में ) ‘हे
का उच्चारण बहुत कुछ ‘अय्' जैसा होता है और ‘ौ' का ‘अव्’ से मिलता-
जुलता-‘ऐसा' 'और' । संस्कृत में इससे कुछ भिन्न उछारण इन स्वरों का
है--‘ऐश्वर्य-श्रौदा' । संस्कृत के उच्चारण से मिलता-जुलता उच्चारण इन
स्वरों का हिन्दी की पूरजी बोलियों में है । सदरासी भाई भी इन दोनों स्वरों
झा वैसा ही उच्चारण करते हैं, जैसा कि उत्तर प्रदेश के पूरबी भागों में होता
हैं। 'पैसा' को वहाँ ‘पइसा जैसा बोलते हैं । राष्ट्रभाषा का ऐसा पूरब की
बोलियों में ऐस’ ( ऋइस ) है और कैसा है ‘कैस’ ( फइस ) । खड़ी पाई
( पुंविभक्ति ) का क्षेत्र वह नहीं है । ‘अतना-केतना' आदि में पुंविभक्ति
अवश्य है और भूतकाल की क्रिया में भी है। इतनी वो वहाँ पहुँच गई
है। हाँ, वे ऐस' तथा 'कैस’ बहाँ ‘अइस' तथा 'कइस' से मिलते-जुलते
उच्चरित होते हैं।
यह उच्चारण-भेद कोई असाधारण बात नहीं है । स्थान-भेद से उच्चारण-
भेद हो जाता है । संस्कृत का उच्चारण उत्तर प्रदेश के पंडित जैसः ऋरते हैं,
दाक्षिणात्य उससे भिन्न करते हैं ! बंगाल के पण्डित ‘रतस्य’ को ‘इतस' से
मिलता-जुलता बोलते हैं, ‘सरस्वतीम्’ को ‘सरस्वती' बोलते हैं। यदि को
वहाँ जोदि' बोलते हैं, 'ओ' का लघु उच्चारण कर के। परन्तु संस्कृत का
पाण्डित्य दक्षिण में और बंगाल में कैसा उदात्त-म्भीर है, सब जानते हैं ।
सम्भव है, दाक्षिणात्य पण्डित उत्तर प्रदेश के संस्कृत-पशिडतों के उच्चारण को
ही गलत बतलाते हों । परन्तु यह उच्चारण-भेद संस्कृत भाषा में कोई भेद
पैदा नहीं करता ! सब सब की संस्कृत मजे से समझते हैं, वैसा उच्चारा-भेद
होने पर भी । और, लिखावट में तो कोई अन्तर है ही नहीं। किसी भी
सार्वभौम भाषा के कुछ शब्द् देश-भेद से उच्चारण-भेद प्राप्त कर लेते हैं ।
अंग्रेजी में शिक्षा का वाचक जो शब्द है, उसका उच्चारण फहीं एजूकेशन
होता है, कहीं ड्यूकेशन' । परन्तु तो भी, सब की अंग्रेजी सब समझ लेते हैं ।
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