पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/१३५

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तो भी, एक भाषा के एक उच्चारण में जहाँ तक एकता रहे, अच्छी बात है। सब के हित की बात है। भैस-सन्देह को अवकाश नहीं मिलता है। स्वरों के अनुनासिक-अनुनासिक भेद इह सब स्छों के दो भेद और किए जाएँगे-साधारशा और अनुनासिक । एक भेद अनुनासिक’ हुशा, तब ‘साधारण' स्वरों को ‘अननुनासिक' या निरनुनासिक' कइले लगे ? कोई-कोई अनुनासिक’ को ‘सानुनासिक' कहते लिखते हैं, जो अभी अनुपद गलत सिद्ध होगा । ‘पूर्वपीठिका में जैता निर्देश किया गया है, हिन् की प्रवृत्ति अनुना- सिक-प्रधान है, संस्कृति की अनुस्वार-प्रधान । जब भी हिन्दी किसी संस्कृत शब्द को तद्भव रूप देता है, तब अनुस्वार तथा - आदि को हटा कर उसके । आश्रय ) वर झो प्रायः अनुनासिक कर देती है। इस के अपवाद भी हो सकते हैं। परन्तु प्रवृत्ति यही है }--'अछ'-अँगूठा', “सम्भालन ( संभालन )-भालना', झांक्ष' 'ख', 'अझलि'.अँगुली', 'अंत्र- श्रत’, ‘दन्त'-दॉत' ऋ!ि 'अङ् सम् अन् आदि का उच्चार अनु- स्वार से मिलता-जुलता है, इस लिए इन्हें भी हट कर हिन्दी स्वर को अनु- नासिरू कर देती है। यानी अनुश्वार है, या उसका कोई भाई हो, सबको एक दृष्टि से यहाँ देखा जाता है । 'अक्षि' में वैसी कोई चीज नहीं है, तो भी हिन्दी ने अपने उद्भव शब्द् में अनुनासिक-प्रवृत्ति दिखाई है । इसका यह मतलब नहीं कि हिन्दी में अनुस्वार का बहिष्कार है । संस्कृत तड़प शब्द संवाद' श्रहंकार' श्रादि यहाँ बराबर सानुस्वार ही चलते हैं। “अंगूर अंटा' डंडा’ ‘कृ’ कंडा' आदि अपने शब्दों में भी अनुस्वार स्पष्ट है । ‘दन्त’ कभी भी ‘दत न होगा; परन्तु तद्भ “दाँत' भी ‘दान्त' या 'दांत न बनेगा ! संस्कृत ( तट्ट ए ) शब्द “दान्त' पृथक् चीज है--‘दसनशील तभी त तद्भव अनुनासिक ‘दात’ बनाया गया है। दाँत को “दांत भी न लिखना चाहिए; क्योकि उछार ( अहिन्दीभाषी ) इसका ‘दात' या

  • दा करेंगे ! अनुनासिंक और अनुस्वार में अन्तर है। हिन्दीभाषी तो

समझ ही लेते हैं, क्योकि अभ्यस्त हैं । नींद आदि में श्रनुनासिक चिह्न लगाना दिक्कत की चीज है और उन अादि में भी । पर अ-अ' में अनु- सिक चिह्न लाने में दिक्कत नहीं ! 'कंगाल' और इँला' में अन्तर हैं । सँदेता’ को ‘संदेसा' कहना करना ठीक नहीं ।