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लघु' बताना गलती है । हाँ, अनुस्वार तथा अनुनासिक के उच्चारण में जो अन्तर है, समझ लेने की चीज है । उच्चारण-भेद से ही तो वस्तु-भेद है।

अनुस्वार और विसर्ग

अनुस्वार और विसर्ग कई व्याकरण-पुस्तकों में एक तरह के व्यंजन मान लिए गए हैं और व्यंजनों में ही इनका वर्णन किया गया है ! यह गलती हैं । ये ध्वनियाँ न तो स्वर हैं, न व्यंजन हैं । हाँ, स्वरों के सहारे इन्हें चलते जरूर देखा जाता है । स्वतन्त्र गति नहीं, इस लिए ये स्वर नहीं हैं और व्यंजनों की तरह थे। स्वरों के पूर्व नहीं, पश्चात् आते हैं, इसलिए व्यंजन नहीं । वर्गों की दो श्रेणियों में से किसी के भी साथ इनकी जातीय योग नहीं है। इसी लिए इन दोनो ध्वनियो को ‘झयोगवाई' कहते हैं। न स्वरो से योग, न व्यंजनों से; फिर भी अर्थ-वहन करते हैं । इसी लिए अयोगवाह । ‘अनुस्वार तो ऊपर देख ही चुके, स्वर के बाद रहता है। पूर्व में स्वर और पश्चात् अनुस्वार । व्यंजन स्वर से पहले आते हैं। कंकड़ में 'क्' पहले है ‘अ’ से और उस ‘अ’ के बाद है अनुस्वार ।। अनुस्वार की ही तरह विमुर्ग भी स्वर के बाद श्रोते हैं----‘प्रायः' । ‘यु के 'अ' से बाद विसर्गों का उच्चारण है । एक झटके से विसर्जन है। विसर्गों का उच्चारण : जैसा होता है। इसी कारण 'छह तथा

  • ज्यादह आदि को लोग छः-ज्यादः' लिखने लगे थे ! बड़ी कठिनाई से ।

यह गलती समझाई गई। अब तो छह तथा *ज्यादह' लिखा जाने लगा है । *भामह’ को भी लोगों ने ‘भामः हिन्दी में कर दिया था ! परन्तु “ह से पृथक ध्वनि विस की होनी चाहिए। प्रत्येक ध्वनि के लिए लिपि में पृथक संकेत अर्य-पद्धति है ! एक ही ध्वनि के लिए अनेक लिपि-संकेत नहीं हो सकते । निःसंदेह वह ध्वनि ‘ह की ध्वनि से मिलती- जुलती होगी; क्योंकि इन दोनो का उच्चारण-स्थान कंठ ही हैं ! कालान्तर में वह सूक्ष्म भेद नष्ट हो गया ! अब अाज तो ( संस्कृत-जगत् में भी ) विसर्गों का उच्चारण 'इ' जैसा ही होता है ।। संस्कृत में विसर्गों के बिना काम ही नहीं चल सकता । वहाँ अनेक झारकों की अभिव्यक्ति विलग के बल पर ही है। सो, उच्चारण चाहे कुछ इधर-उधर भी हो गया हो, परन्तु विसर्ग की स्थिति वहाँ ज्यों की त्यों है ।