पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/१४२

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१-- कशठ नासिका स्थान

२-अ' तालु-नासिका स्थान

३–“श” मूद्ध-नासिका स्थान

४ --‘न' दन्त-नासिका स्थान

५-‘स श्रोष्ठ-नासिका स्थान

अनुस्वार का स्थान भी नासिका है । संस्कृत-व्याकरश के अनुसार मू को प्रायः और 'न' को कभी-कभी अनुस्वार हुआ करता है और अनुस्वार को भी यथास्थान झ् । न् दथा म्, हुआ करता है । यही ( नासिका- सहयोग ) कारण है कि अनुस्वार लाने से भी स्वर-व्यंजन मधुर ध्वनि देने लगते हैं. कंकन किंफिनि नूपुर धुनि सुनि” । जैसा 'न' वैसा ही अनुस्वार मथुर । दूध और मिस का मेल ।। अनुनासिक व्यंजनों की ही तरह सानुस्वार स्वरों को भी द्विस्थानीय कह सकते थे; परन्तु नहीं कहा जाता; इस लिए कि 'अँ' एक ध्वनि है; पर अं' में दो ध्वनियाँ हैं----*अङ' जैसा श्रवण होता है ! 'अ' से अनुस्वार पृथक् सत्ता रखता है, तब ‘अं' को द्विस्थानीय कैसे कहा जाए ? “' कर कण्ठ स्थान है, अनुस्वार का नासिका है; यों निर्देश होगा । पर अँगूठी' का “अँ द्विस्थानीय है । “अं' काठ और नासिका; पृथक्-पृथक् जैसे प्यास' का प्या' ओष्ठ-तालु-फएट स्थान वाले पृथक् वर्षों से है } अनुनासिक स्वर भी मधुर होते हैं-“अँखियाँ हरि-दरसन की प्यास में अँखियाँ देखिए ! 'अँखियाँ में जो मिठास है, वह अखरता है' में है क्या ? अनुनासिक स्वरों को ‘द्विस्थानीय ध्वनित करने के लिद ही शायद

  • मुखनासिकाइनोऽनुनासिकः' कहा गया हैं-मुख-सहित नासिका से

उच्चार्यमःण व अनुनासिक' होता है । वर्श' में दर १ ॐ श्रादि ) तथा व्यंजन ( छ आदि ) दोनों वर्ग अनुनासिक के आ गए। जैसे 'ॐ' में ‘अ’ले अनुनासिक नाम की चीज पृथक् नहीं, उसी तरह इन अनुनासिक व्यंज में

  • श्राप देखते हैं । ध्वनि पृथक् नहीं, इसी लिए इन्हें संयुक्त बयाई नहीं कहा

जा सकत' । “जन्स' में ‘म’ तीन वर्षों से है; तीन ध्वनियाँ हैं = ५ अ' । अब इन तीनों में से किसी भी एक को द्वि विभक्त नहीं कर सकते। ‘सू एक व है, जैसे 'अँ'। एक अनुनासिक व्यंजन, दूसरा अनुनासिक स्वर ।