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महाप्राण व्यंजन

ऊष्म वर्ण ( श, ष, स, ह ) तथा वर्गों के द्वितीय-चतुर्थ अक्षर ‘महा- प्राण' हैं । इनका उच्चारण महाप्राणता प्रकट करता है । ऊमा ( रारमाहट ) इनमें स्पष्ट है । महाप्राण है। ठहरे ! श, ष, स ये व आपस में एक दूसरे के रूप में आया करते हैं। हिन्दी के गठन में तो “स' मात्र काम में आया है। संस्कृत ( तद्र,९ ) शब्द जो हिन्दी में चलते हैं, उनमें 'श' तथा छ? अाता है। कुछ विदेशी शब्द भी हिन्दी में 'श'-घटित चलते हैं--पेचिश, शाबाश, शेर, शोर आदि । इन ऊष्म’ ३ का उच्चारण ‘क तथा यू' आदि की अपेक्षा जोरदार है । इन सब का गुरु है 'ह' । स’ को प्रायः ‘ह' हो जाया करता है । पंजाब जैसे अक्खड़ प्रान्त में ‘स के जोर से काम न छला, तब उसे “ह' कर दिया गया । हमारे पैसा' तथा 'ऐसा आदि शब्द वहाँ पैहा' ऐहा हो जाते हैं। ‘और वहाँ होर के जादा हैं। हिन्दी में 'दस से जोरदार ‘दहला बन जाता है । जोरदार काम करने पर कहते हैं--‘उसने तो अच्छा नइले पर दला जमाया' ।। विसर्गों का उच्चारण ‘ह' से मिलता-जुलता है और इसी लिए संस्कृत में

  • स्’ को प्रायः विसर्ग तथा विसर्गों को सु’ हुआ करता है ।

| भाषा के विकास में ह' वर्ण का जो स्थान है, अन्य किसी वर्ण का नहीं। इसका नमूना हिन्दी-निरुक्त' में देख सकते हैं । | वर्गों के अल्प्राण ( ‘क’ श्रादि ) व्यंजनों को भी ‘’ महाप्राण बना देता है, यदि ये उसके साथ अभिन्न होकर रहें। यह शक्ति दूसरे किसी महाप्राण वर्ग में नहीं हैं। ऐसा हाणु वह एक ही है, जो अपप्राणों को भी महाप्राण बना देता है । वीर तो बहुत हो सकते हैं, परन्तु जो दूसरों को भी वीर बना दे, उसकी विशेषता है। गुरु गोविन्द सिंह ने कहा था---‘जो चिड़ियों को बाज बना, तौ गुरु गोविन्द सिंह कहा। उन्होंने चिड़ियों को-दवे-पिसे किसानों को-बाज बना दिया, ‘सिंह' बना दिया, जिनका लोहा च-बड़ों को मानना पड़ा । भाषा का यह 'इ' भी ऐसा ही है। यह ‘क् च् तथा ज् आदि अल्पप्रा’ व्यंजनों को सहयोग देकर उन्हें महाप्राण बना देता है-*ल छ' तथा ‘धृ झचे बन जाते हैं । “ह के सहयोग