पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/१४८

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| कभी-कभी दो स्वरों में ही सन्धि हो जाती है। विधि-शर्थ प्रकट करने के लिए हिन्दी में 'इ' प्रत्यय होता हैं, जो संस्कृत के ‘इय्' के यू' को उड़ा कर बना-बनाया जान पड़ता है। भ्रातु के अन्य ‘अ’ तथा प्रत्यय के ‘इ' को मिल कर ' ( अवधी-ब्रजभाषा में 'ऐ' ) सन्धि हो जाती हैं और तव धातु को बचा हुआ ( अन्य ) व्यंजन इस ” ( या ‘ए’ } में जा मिलता है। • “पठेत् सं० से ‘पढ़' हिन्दी ।—इय्’ को ‘इ' रूप ।। राष्ट्रभाषा | अवधी-व्रजभाषा आदि कर -३' = रे, टल + इ = टले, टलै-धेरै काह - इ = कई, कभी-कभी दो स्वरों के मेले में एक का ही रूपान्तर होता है, एक ज्यों का त्यों बना रहता है । दीर्घ स्वरान्त धातुओं से परे यई विध्यर्थक 'इ' प्रत्यय स्वयं ( अकेला ही ) 'ए' बन जाता है। संस्कृत में भी 'इ' अनेक जाह र के रूप में अती दिखाई देती है:- तो + इ = सोए र + इ = रोए जा + इ = जाए या + इ = गाए एका+ इ = पक्राई धो + ई = धोए उ + इ = खोद खा + इ = खाए वेज् + इ = बजाए पद + ई = पढ़ाई ब्रजभाषा आदि में सो’ ‘रो' 'बो' अदि धातु-रूप नहीं; ‘सोच रोच अादि हैं—सोबत है' रोवत है धौवना है' आदि क्रियाएँ हैं। वहाँ इन ( *सोव' आदि ) धातुओं के अन्य क्र' तथा प्रत्यय 'इ' में वही १३ } सन्धि हो जाती हैं- सोव + इ = सवै रोव + इ = रोदै घोष + इ = धोबै श्राव + इ = आवै