पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/१५

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व्याकरण' बतलाया था। आचार्य द्विवेदी तथा आचार्य वाजपेयी के स्पष्ट समर्थन ने gी मुझे बैसी हिम्मत दी कि आगे बढ़ता गया। इस ग्रन्थ के तयार करने-कराने में सब से बड़ा हाथ है महापण्डित राहुल सांकृत्यायन; को यह बात ‘पूर्वपीठिका' के अन्तिम पृष्ठों से ज्ञात हो गई। राहुल जी टंकित प्रति पढ़ कर सम्मति भी बराबर भेजते रहे; पर ‘पूर्व-पीठिका' से ही संबद्ध विषयों पर । जैसे कि-वेद के रचना-काल के बारे में उन्हो ने लिखा कि वेदों को बने इतने दिन नहीं, इतने दिन हुए हैं । परन्तु मै बहुत । कुछ ‘सनातनी भी तो हूँ । इस संबन्ध में अपने कुछ 'संस्कार' हैं, जो जोर" मारते हैं । तर्क-सिद्ध बात भी संस्कार कभी-कभी नहीं ग्रहण करते ! राहुल जी ने यह भी लिखा था कि प्राकृत अपभ्रंश' नाम बहुत प्रसिद्ध है; इन्हें ही रखना चाहिए। प्राकृत' तो मैं ने रखा ही है; “अपभ्रंश हटा दिया है । तीसरी प्राकृत इसे मैं ने कहा है; पर लिख दिया है कि इसे ही लोग ‘अपभ्रंश' कहते हैं । इस के अतिरिक्त, राहुल जी के ये भी निर्देश थे कि- १–अवधी ग्रादि का विवेचन करते समय जेहिका, केशिका' और ‘श्रोढ़ावत है” “छोड़ावति है' आदि के ‘ए’---श्रो' का ह्रस्व उच्चारण प्रकट करने के लिए उलटी मात्राओं का उपयोग करना चाहिए । सो किया गया है ।। | २-राहुल जी ने यह भी लिखा था कि अन्त में हिन्दी-धातुश्चों की पूरी सूची रहनी चाहिए। यह नहीं हो सका है। मैं ने सूची-मात्र देने में कोई लाभ नहीं सोचा । उन का विकास-निकास आदि पूरी तरह न बताया जाए, तब तक मुझे सन्तोष नहीं और यह एक अलग काम है; कभी वर्वत्र चीन के रूप में आ भी जाए; तो अचरज नहीं । ३-राहुल जी ने यह इच्छा प्रकट की थी कि जहाँ संस्कृत का कोई वाक्य दिया जाए, वहाँ उस का हिन्दी अर्थ भी दे दिया जाए; भले ही पाद-पीठिका में । उन के इस परामर्श पर अमल किया गया है; पर जहाँ वैसा जरूरी नहीं समझा, वहाँ हिन्दी-अर्थ नहीं भी दिया है । मूल ग्रन्थ लगने में दिक्कत न पड़े, इतना ही ध्यान रखा गया है । ४-राहुल जी ने स्थान-प्रयत्नों की सारणी देने को लिखा था; पर स्थान-प्रयत्न' बहुत स्पष्ट हैं और जो अभ्यन्तर'-'वाह्य प्रयत्न हिन्दी के काम ही नहीं आते, उन्हें स्थईन ही नहीं दिया गया है।