पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/१५१

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( १०६ ) कहने को तथा '’ सव' हैं--कस्थानीय हैं; परन्तु जन्न दो स्वर्ण स्वर बीच में इस ? व्यंजन ) को कर पाते हैं, तो चाट जाते हैं और फिर ये दोनो गले मिल र ‘बड़े हो जाते हैं ! सो, ‘किया' का ‘कियूई’ और ‘किं ई' हो कर स्वर्ण-दीर्थं एकादेश-की’ | इसे अब आप किसी भी तरह ‘किया नहीं लिख सकते । कोई अहिन्दी-भाषी यदि किया' का स्त्रीलिग अपनी बुद्धि' से फियी' बना कर लिख दे, तो दूसरा अहिन्दीभाषी ही छात्र हँसने लगेगा ! कहेगा--भैया, यह ‘झियी क्यू; चीजे है ? ‘क’ होता है !

  • श्थि' का 'पी' होता है-उसने शराब कभी नहीं पी'। 'शराब नहीं पियी

गलत है। यह भाषा की प्रकृति है ।” तो, जब ‘किया-पिया' आदि में थ’ का लोए अनिवार्थ हैं, तो अन्यत्र भी ऐसे स्थल में सही, एकरूपता के लिए । इसी लिए उन पूर्ववर्ती साहित्यकारों ने बैंसे प्रयोग किए हैं। आप भी यदि करूपता चाहते हैं, तो ‘गई-गए' लिखिए, अन्यथा ‘गयी-नये' भी चल ही रहे हैं । सारांश यह कि भूतकाल के यु-प्रत्यय का लोप ऐसी जगह वैकल्पिक है, परन्तु इकारान्त-इकारान्त धातुओं से परे इसका नित्य लोप हो जाता है; श्री-प्रत्यय रे होने पर ।। | इस लोध-प्रकरण के सिलसिले में यह भी समझ लेने की बात है कि यह-अह’ सर्वनाम से परे ‘ही अव्यय आ जाए, तो अपने सगे ( सर्वनाम के ) “ह’ को समाप्त कर देता है ! स्वर-सहित ह” उड़ जाता है ! “ह तो महाप्राण है न ! दो दोर एक जगह नहीं रहते । सो- वह + ही है वहीं यह +ही = यही यह लगभरा नित्य लोप है । वह हीं” और “यह ही प्रयोग देखने में नहीं आते । भद्दे लगते हैं ! खरीददार कैसा लगता है ? ‘खरीदार बढ़िया शब्द बन गया--एक 'द लोप कर के ! इसी तरह वही अादि ।। इसी तरह यहाँ ‘बह” “कहाँ' आदि स्थान-बान्चक अव्युयों से परे 'ही' आ जाए, तो इनके “हा” की भी बही दशा होती है; परन्तु अनुनासिकृत्व 'ही' अव्यय छीन कर अपने पास रख लेता है । यह ‘ही’ बड़ा शक्तिशाली अव्यय है । अनुनासिक-मणुि यह स्वयं धारण कर के यों चमकता है- यह* ही = यहीं वहाँही = वहीं कहाँ ही = कहीं