मध्यम पुरुष ( आज्ञा आदि में ) रूप होते हैं-अवधी में तथा ब्रजभाषा में
भी । ‘ह' का लोप करके और धातु के अन्त्य 'अ' तथा उस अवशिष्ट 3
में गु सन्धि करके “ो’ बन जाता है। रूम चलते हैं----पढ़ो, करो, हद
आदि। ब्रजभाषा आदि में भी ‘ह का वैकल्पिक लोप होकर अ+उ="औ’
सन्धि होती है--‘पढ़ौ' करौ' आदि। यह उ’ यहाँ राष्ट्रभाषा में
स्वतंत्र तिङन्त-विभक्ति के रूप में गृहीत है, यह सब क्रिया-प्रकरण में
स्पष्ट होगा ।
अकारान्त धातुओं से भिन्न, अन्यस्वरान्त धातुओं से परे जब यह उ””
प्रत्यय आता है, तब स्वयं { अकेला ) ही ‘अ’ बन जाता है-
खुः +उ = खाश्रो
जा +उ = जा
सी ++ उ = सीओ
पी+उ = पीओ
कभी-कभी धातु के “ई” को “इथू कर देते हैंसियो’ ‘पियो' } यह ‘इथू
संस्कृत के इङ' की ही प्रतिमूर्ति है । स्त्री-लिंग बहुवचन-सूचक ‘’ परे हो,
तो भी ‘इ तथा ई’ को ‘इयु हो जाता है-
बुद्धि + अ = बुद्धियाँ
नदी + आ = नदियों
गाड़ी + अ = गाड़ियाँ
गाली+ अ = गालियाँ
| कोई अन्य स्वर स्त्रीलिंग शब्दों के अन्त में हो, तो सामने का यह ‘ाँ
' रूप में रहती है । यदि अकारान्त स्त्रीलिंग शब्द है, तो अन्त्य ‘अ’ का
लोप हो जाता है और व्यंजन आगे के ‘एँ में जा मिलता है:---
बहन + हूँ = बहनें
टिकट *एँ = टिकटें
सड़क + हूँ = सड़कें
यदि अन्य कोई स्वर शब्द के अन्त में हो, तो ॐ तद अन’
हता है-
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