पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/१५४

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मध्यम पुरुष ( आज्ञा आदि में ) रूप होते हैं-अवधी में तथा ब्रजभाषा में भी । ‘ह' का लोप करके और धातु के अन्त्य 'अ' तथा उस अवशिष्ट 3 में गु सन्धि करके “ो’ बन जाता है। रूम चलते हैं----पढ़ो, करो, हद आदि। ब्रजभाषा आदि में भी ‘ह का वैकल्पिक लोप होकर अ+उ="औ’ सन्धि होती है--‘पढ़ौ' करौ' आदि। यह उ’ यहाँ राष्ट्रभाषा में स्वतंत्र तिङन्त-विभक्ति के रूप में गृहीत है, यह सब क्रिया-प्रकरण में स्पष्ट होगा । अकारान्त धातुओं से भिन्न, अन्यस्वरान्त धातुओं से परे जब यह उ”” प्रत्यय आता है, तब स्वयं { अकेला ) ही ‘अ’ बन जाता है- खुः +उ = खाश्रो जा +उ = जा सी ++ उ = सीओ पी+उ = पीओ कभी-कभी धातु के “ई” को “इथू कर देते हैंसियो’ ‘पियो' } यह ‘इथू संस्कृत के इङ' की ही प्रतिमूर्ति है । स्त्री-लिंग बहुवचन-सूचक ‘’ परे हो, तो भी ‘इ तथा ई’ को ‘इयु हो जाता है- बुद्धि + अ = बुद्धियाँ नदी + आ = नदियों गाड़ी + अ = गाड़ियाँ गाली+ अ = गालियाँ | कोई अन्य स्वर स्त्रीलिंग शब्दों के अन्त में हो, तो सामने का यह ‘ाँ ' रूप में रहती है । यदि अकारान्त स्त्रीलिंग शब्द है, तो अन्त्य ‘अ’ का लोप हो जाता है और व्यंजन आगे के ‘एँ में जा मिलता है:--- बहन + हूँ = बहनें टिकट *एँ = टिकटें सड़क + हूँ = सड़कें यदि अन्य कोई स्वर शब्द के अन्त में हो, तो ॐ तद अन’ हता है-