पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/१५६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
(१११)

( १११ ) भी नहीं चलता-चलन नहीं । 'कामना’ चलता है। हिन्दी का मनोकामना एक विशिष्ट अर्थ देता है । “कामना मात्र से वह बात न बनेगी। मनो- • कामना स्त्री-सुलभ प्रयोग है। आगे जो सन्धियाँ लिखी जाएँगी, उनका उपयोग हिन्दी के ठेठ ‘अपने’ या तद्भव शब्दों में नहीं किया जाता, विदेशी भाषा के शब्दों में भी नहीं ! “घराधीश ‘मकालाधीश' आदि प्रयोग कभी भी नहीं होते, परन्तु एक *जिलाधीश' शब्द चल पड़ा है । जान पड़ता है, सन्धि में जिला” शब्द स्पष्ट रहने से सन्धि हो गई है । “संहितैकपदे' नित्या- सन्धि ‘एक पद' में अवश्य होती है, इस नियम का पालन बहुत कुछ हिन्दी ने किया है। राष्ट्रभाषा में कर' तथा करइ जैसे सन्धिरहिंत पद नहीं चलते.. “क” जैसे सन्धि-युक्त पद ही प्रयुक्त होते हैं । अवधी तथा ब्रजभाषा आदि दूसरे मार्ग पर है : ‘दृद्धि-सन्धि हिन्दी ने बहुत कम स्वी- झार को है ! कहाँ क्या हिन्दी ने ग्रह क्रिया हैं, क्या नहीं; इसे आर्भ देखा जाएगा। इतनः सदा ध्यान में रहे कि संस्कृत के सन्धि-नियम तड़प संस्कृत शब्दों में ही हिन्दी चलाती हैं। अपना क्षेत्र, अपने नियम; परन्तु संस्कृत की प्रतिष्ठा है। उसके शब्दों का समाप्त उसई के निर्मों से । अन्य भाषाओं में भी समस्त पद सन्धि-युक्त झाते हैं--कैन +नार = कट’ ! यह ‘कान्ट' शब्द मैने सुना है और कैन' तथा 'नाट' का मतलब भी जानता हूँ। अंग्रेजी तो नहीं पढ़ा, पर सुनने-सुनाते अन्दा है कि यह ‘कान्ट' शब्द समास-सन्धि का ही परिणाम है । हाँ, संस्कृत में समास तथा सन्धियों का बहुत अधिक विस्तार है ।। | हिन्दी में सन्धियाँ दो ही तरह की है, स्वर-सन्धि और व्यंजन-सन्धि, जिनके कुछ उदाहरण पीछे देख चुके हैं। संस्कृत में तीसरा भेद एक और है-विसर्ग-सन्धि' । यह विसई-सन्धि संस्कृत की अपनी विष चीज हैं। संसार की किसी भी दूलरी भाव में विरा' जैसी कोई ईईज हैं ही नहीं, तब

  • विसर्ग सन्धि' की वहाँ बात ही क्या ! ऐसा जान इड़ता है कि सनई की

‘मूल भाषा' का यह नाभ-निशान भारत के महान् अवसायी, यी र दृढ़संकल्या ब्राह्म-ण्डित ने अब तक बचाए-बनाए रखा, मुले ही उसके उच्चारण में किचित् अन्तर छा गया हो। बहुत बड़ी बात है ! अन्यत्र कई भी इतनी पुरानी भाषा का ऐसा चलन न मिलेगा; उसके किसी विशिष्ट अंशु का सुरक्षित रहना तो बहुत दूर की बात है ! सो, संस्कृत में ‘विसर्ग-सन्धि' नाम से वर्च-सन्दियों का एक श्रावश्यको भेद है। इसे भी वर्ण-वन्धि' कहते हैं, क्योंकि प्रा में अनुस्वार तथा विसर्ग