पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/१६

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मुझे पूर्ण सन्तोष है कि राहुल जी ने टंकित प्रति पूरे मनोयोग से पढ़ी और अपने सौ काम छोड़ कर आवश्यक परामर्श दिए । डा० हजारी प्रसाद द्विवेदी ने एक परामर्श यह दिया था कि “पढ़े' पढ़े गा’ आदि में 'इ' प्रत्यय न मान कर ‘ए’ मान लिया जाए, तो अच्छा रहे । पढ़+ इ = ‘पढ़े' की अपेक्षा ‘पढ़+ए = २ढ़े' चे अधिक पसन्द करते हैं । परन्तु वैसा करने पर भी “पढ़' के अन्त्य 'ऋ' का लोप तो करना ही पड़े गए ! तो फिर 'गुण-सन्धि ही सही ! परन्तु प्राचार्य द्विवेदी ( अन्य भाषाविज्ञानियों की ही तरह ) हिन्दी की पढ़' आदि धातुश्र को हलन्त' मानते हैं ! इस लिए अ-लोष की बात ही नहीं, उन के सत से । परन्तु मुझे तो ‘पद्ध' हलन्त नहीं, अकारान्त दिखाई पड़ रहा है और इसी लिए द्विवेदी जी की सम्मति मैं ग्रहण न कर सका । 'इ' प्रत्यय मानने में मेरे सामने एक आकर्षण अन्य भी रहा है । वह आकर्षण यह कि 'करिहै' श्रादिं भविष्यत् काल की क्रियाओं में भी 'इ' प्रत्यय है। तत्र पढे गा' के पढ़े में भी 'इ' ठीक } दूसरे, काशी की ओर *राम अब न पढ़ी जैसे रूप भविष्यत् में बोलते हैं-- पही'-न पढ़े गा। यह 'ई' भी पढ़े-पढ़े गा’ श्रादि में इ' प्रत्यय मानने में एक कारण हैं। ब्रजभाषा में पढ़े-पड़े गो' जैसे रूप होते हैं। वहाँ अ + इ = ‘हे’ सन्धि है और यहाँ अ-+इ = ‘ए’ । यदि ‘ए’ प्रत्यय मान लें, तो ब्रजभाषा में 'ऐ भिन्न प्रत्यय रहे गा, जो ठीक नहीं । प्रत्यय-भेद क्यों किया जाए, जब कि सन्धि-भेद है ही ।। बस, और कोई सम्मति कहीं से- नींमली । मौनं सम्मतिलक्षणम् समझिए । 'ने' विभक्ति की उद्भावना जब मैं ने पहले प्रकट की थी, तब ( १६.४३ ) में डी० वर्मा' नाम से एक सृजन ने लीडर' में मेरा मजाक उड़ाया था ! पर अब तो सभी मान गए हैं। इस अन्थ में कई नई उद्भवनाएँ मिलें गी । हिन्दी की संबन्ध-विभक्तियाँ ( के, रे, ने ) प्रकट हुई हैं। का, के, की—रा, रे, री---ना, ने भी संबन्ध- प्रत्यय हैं, विभक्ति नहीं। यह बात तो ब्रजभाषा-व्याकरए में ही प्रकट कर दी गई थी। अब । के, रे, ने ) संबन्ध-विभक्तियाँ स्पष्ट हो गई हैं-उन संबन्ध- प्रत्ययों से भिन्न है इस से हिन्दी व्याकरण का स्वरूप सिखर उठा है। इन विभक्तियों के उद्भव की परम्परा भी उद्भावित की गई है । पहले व्याकरण था कहाँ हिन्दी का ? राम ने रोटी खाई को लोग कर्तृवाच्य’ क्रिया सेम- झाया करते थे ! का, के, की’ को विभक्तियाँ कहा करते थे ! 'ने' को करा-