पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/१६८

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(- १२३ ) | इन 'ने' को झादि को ‘विभक्ति' क्यों कहते हैं। कई सकते हैं कि

  • स ने” “कृष्ण को' आदि में ये विभक्त रूप से ( पृथक् ) लिखी जाती हैं;

इस लिए विभक्ति' ! अन्य प्रत्ययों में यह बात नहीं है। ‘ज्ञान' से 'ई' प्रत्यय झुरके 'ज्ञानी बनाया यहाँ ६' प्रत्यय अलग न रह कर ‘ज्ञान में ही रल- मिल गया है। परन्तु ज्ञानी को भी रोटी चाहिंस' में की ज्ञानी से विभक्त देख सकते हैं। इस तरह ‘ज्ञान के 'ई' प्रत्यय को अलग कर के कोई नहीं लिख सकता है इसी लिएको श्रादि को ‘दिभक्ति' कहते हैं । ठीक, बाई समझ में आने योग्य है। परन्तु उसे भी रोटी चाहिए में उसे पद् कुछ और कइदा है ! उसे और उस झो' एक ईं वाद है; परन्तु ‘क’ की तरह हम उसे” के उस अंश को उस से इश्क करके दई लिख़ सकते, जो ‘को की ही तरह एक विभ िहैं, उसी काम के लिए। लुभाने के लिए इस * इ’ कर सकते हैं; परन्तु इसका विभक्त प्रयोग नहीं कर सकते। यही बात “तेरा, मेरा, तुम्हारा, इमार आदि की है। राम का’ छादि की तरह यहाँ प्रकृति से उस प्रत्यय ( २ ) की भी पृथंङ् कर के लइf प्रयुक्त कर सकते। तु फिर वे ‘विभक्तियाँ कैसे ? और ‘विभक्ति' शब्द त हिन्दी में संस्कृत में आया है न ? वहाँ दो ‘बालकेन’ ‘बालकस्य' आदि सभी पद संश्लिष्ट प्रयुक्त होते हैं । वहाँ ‘ते’ और ‘को' अदि की तरह विश्लष्ट विभक्तियाँ रहती ही नहीं ! तव वहाँ इन ‘इन’ तथा स्थ’ श्रादि को ‘विभक्ति' क्यों कहते हैं ? पता नहीं, क्या बात है ! *विभक्ति' परम्परा से इन इरम' प्रत्ययों को कहते चले आते हैं ! प्रत्ययों की यह विशिष्ट श्रेणं है। ज्ञान' से 'ई' प्रत्यय होर ज्ञानी' बना, तब इसमें ‘क’ आदि प्रत्यय लगेंगे, अन्त मैं ! इसी लिभ इन्हें

  • वरम' प्रत्यय कहते हैं-सब से अन्त में प्रयुक्त होने वाले } इनके बाद फिर

कोई प्रत्यय न लगे । हिन्दी में हैं तथ; अनेक पूर्ववर्ती प्राकृत में } एक विभक्ति के बाद दूसरं विभक्ति भी कई लग जाती हैं----‘इनमें से एक छाँट लो' । यहाँ ‘में' के बाद से है । पर ये दोनों विभक्तियाँ हैं, दोनो करम प्रत्यय हैं ! एक विभत्ति के बाद दूदी विभक्ति ही लग सकती हैं, कोई अन्य ( साधारण } इत्यय नहीं । सो, इन चरस-प्रत्यर्यों को विभक्ति कहते हैं, बुस ! विभक्ति' नाम यदि यौगिक है, वे इसके अवार्थ कई पता नहीं; क्योंकि संस्कृत में । तथा हिन्दी के उसे' आदि पदों में ) इभको विभक प्रयोग देखा नहीं जाता । ही स्थिति धातु में लगने वाली क्रिया- विभक्तियों की भी है। तब फिर संज्ञा-विभक्ति तथा ‘क्रिया-विभक्ति' नाम क्यों ?