पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/१६९

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क्या सम्भव है, संस्कृत की कोई ऐसी अवस्था रही हो, जब चरम-प्रत्ययों का विभक्त प्रयोग होता हो ! ऐसा दिखाई नहीं देता ! संस्कृत की सभी अवस्थाओं में संश्लिष्ट प्रयोग हैं और यह साहित्यिक भाषा है। इसके सभी रूप साहित्य में सुरक्षित हैं । इस लिए, सम्भावना को कोई असर नहीं । तब क्या है ? सोचने से ऐसा लगता है कि संज्ञा-शब्दों को तथा क्रिया-शब्दों को ये प्रत्यय कर्तृत्व-कर्मत्व आदि तथा विधि-आज्ञा आदि विशेष अर्थों में विभक्त करते हैं; इसी लिए शायद इन्हें विभक्ति' कहा गया हो ! इनके बिना यह विशेष अर्थों में विनियोग-विभाजन सम्भव नहीं है। हो सकता है, इसी कारण इन्हें विभक्ति' कहा गया हो । जो भी हो, इन्हें विभक्ति' कहते हैं ।

हिन्दी की विभक्तियाँ

ऊपर कहा जा चुका है कि हिन्दी में विभक्तियों का प्रयोग तभी होता है, जब इन के बिना काम ही न चलने की स्थिति हो । व्यर्थ ही को’ ‘ने’ आदि की पूँछ नहीं लगा दी जाती । इस के अतिरिक्त, ये विभक्तियाँ हैं भी बहुत कम । गिनी-चुनी विभक्तियों से भाषा का सब काम पूर्ण हो जाता है; न कहीं सन्देह, न भ्रम, न अर्थ-संकट । यही तो विशेषता है इस भाषा की । और, स्वतः इसका इतना अधिक प्रसार-विस्तार होने का भी यही कारण है। संक्षेप में ( स्पष्ट और असन्दिग्ध ) बात कह देना भाषा की विशेषता है। हिन्दी में दो तरह की विभक्तियाँ हैं-१-विश्लिष्ट और २-संश्लिष्ट ।

विश्लिष्ट विभक्तियाँ

हिन्दी में ने, को, से, में-पर, विश्लिष्ट विभक्तियाँ हैं। इनमें से 'ने' विभक्ति का प्रयोग नियमतः फत-कारक में ही होता है, जब कि क्रिया भूत काल की कर्म-वाच्य, या भाव-वाच्य हो । सकर्मक क्रिया में भी इसका प्रयोग नहीं होता, यदि कर्तरि प्रयोग हो, क्रिया कर्तृवाच्य हो। यह सब क्रिया- प्रकरण में स्पष्ट होगा। मुख्य बात यह कि कर्ता-कारक से भिन्न, अन्य किसी भी जगह, किसी अन्य कारक में, कभी भी देने का प्रयोग नहीं होता ! एक ने और संश्लिष्ट विभक्ति भी है, जो सम्बन्ध प्रकट करने के लिए आप' में लगती है। वह पृथक चीज है ।