पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/१७९

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हमें में 'विकरण नहीं आया है। कैसे झाए, वहाँ तो पहले से ही एक ‘ह' जमा हुआ है ! दो लिंह आगे-पीछे नहीं चलते; एक ही सॉद में दो नहीं रह सकते; बी में छोटी-सी सिला कृा व्यवधान होने पर भी । | राष्ट्रभाषा में यह 'इ' विभक्ति पानी-पढ्दानी चीज़ है; एन् है दूसरी जुर की । प्रधी तथा भाषा में हिं’ विभक्ति बहुत प्रसिद्ध है, जिसका उपयोग करके आदि में होता हैं :- केवल सर्वनाम में ही नहीं, सभी नाम (संज्ञा) में भी । ब्रजभाषा में- |ब के नाथ मोहिं उधारि और–‘कृत रघुनाथ मूरि के कारन, | मोकी लेन पठाए !' यो ‘हि’ का वैकल्पिक प्रयोग सर्वनामे में और इसी तरह --- | ‘श्रा जो इहिं न सत्र हाऊ' तथा---‘हरि कौं देखि न और देखियो मोहि सखी अब भावै ।” हिं' का बैकल्पिक प्रयोग है। अवधी में--- लैं रघुनाथहि ठाउँ दिखावा तथा---‘परी न राजहिं नीद निसि | इस तरह ‘हि' का प्रयोग होता है । जनभाषा में इस ‘हिं के ' का लोप भी हो जाता है-- “जो कबिरा झासी मरे, भै कौन निहोर ! रामहि' के 'हू' का लोप और फिर प्रकृतिगत 'अ' तथा इस 'इ' में सन्धि हो कर डे रामै” । यही लो-विधि राष्ट्रभाषा में श्राई है, परन्तु 'अ' तथा 'इ' में सन्धि ‘ए’ होदा है' ऐ नहीं'इसे-उसे ।। | एक बात और । राष्ट्रभाषा ने एक वचन में 'इ' निरनुनासिक कर दी है। क्योंकि अनुनासिक से बहुत्व-सूचन होता है। बहुवचन में वह अनुनासिक हैं। ही-उन्हें, इन्हें, तुम्हें आदि।