पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/१८

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भूमिका

मित्रवर पं० किशोरीदास जी वाजपेयी का यह 'हिंदी शब्दानुशासन' दीर्घकालीन चिंतन-मनन का परिणाम है। इसे प्रकाशित होते देख मुझे बड़ी प्रसन्नता हो रही है। वाजपेयी जी संस्कृत व्याकरण के सुपंडित हैं पर संस्कृत के अधिकांश विद्वानों की भाँति हिंदी को संस्कृत की पूर्ण अनुयायिनी भानने का आग्रह उनमें नहीं है। वे हिंदी की प्रकृति के सूक्ष्म निरीक्षक हैं। इस पुस्तक में उन्होंने हिंदी की इस प्रकृति का बड़ा अच्छा परिचय दिया है। सब लोग उनके निष्कर्षों से सहमत नहीं होंगे किंतु उन्होंने निष्कर्षों तक पहुँचने की पूरी प्रक्रिया बता दी है और विचारशील पाठक को स्वयं सोचने समझने को स्वतंत्र छोड़ दिया है। यह इस पुस्तक की बड़ी भारी विशेषता है। इसका पाठक वाजपेयी जी की विचार-पद्धति को उसके समग्र रूप में, देख सकता है। संस्कृत का व्याकरणशास्त्र केवल प्रकृति-प्रत्यय का विधान मात्र नहीं है। वह अपने आप में परिपूर्ण दर्शन है। उसका रहस्य जाननेवाला भाषा मात्र का रहस्य समझता है। अाधुनिक भाषाविज्ञान ने कई बातों में बड़ी उन्नति की है किंतु प्रत्येक भाषाशास्त्री संस्कृत व्याकरण की अत्यंत परिष्कृत विचारशैली का महत्त्व स्वीकार करता है। वाजपेयी जी ने उस व्याकरण शास्त्र की निर्मल दृष्टि पाई है। आधुनिक भाषाविज्ञान के निष्कर्षों की वे कहीं कहीं अालोचना कर गए हैं पर वस्तुतः वह भाषाविज्ञानियों के व्यक्तिगत रूप से गृहीत निष्कों का विरोध है, भाषाविज्ञान का नहीं । वाजपेयी जी फाकड़ विद्वान हैं। कबीरदास की तरह वे अपने विचारों पर दृढ़ विश्वास रखते हैं और उन्हीं की तरह वे दूसरों की बात को बिना कड़ी परीक्षा के ग्रहण नहीं करते। उनमें एक अजीब सरलता है। उनके विचारों में विश्वास का आग्रह अवश्य है परंतु जब वे दूसरों की बात को युक्तिसंगत मान लेते हैं तो श्राग्रह छोड़ने में जरा भी नहीं हिचकते। यह और बात है कि उनके सामने किसी बात को-जिसे वे अग्राह्य समझ चुके है-युक्तिसंगत सिद्ध करना बड़ा कठिन कार्य है। उनकी सरलता के साथ दृढ़ विश्वास का