सर्वत्र कर्म ( रोटी ) के अनुसार क्रिया के लिंग, वचन, पुरुष हैं---
खाई ।
| जब कभी इन दोनों में से किली की भी पद्धति क्रिया नई स्वीकार करते
और अपनी अलग पद्धति अपनाती है, तब किसी भी { तीसरे) कारक का
सहारा नहीं ले सदा पुझिक दबन रहती है, ‘अन्यपुरुष' । अर्थात्
था तो कता के अनुसार, या कृर्म के अनुसार या फिर सर्वथा स्वदंत्र---
तुम ने इस को देखा
छ ।
के के देला
सत्र देला’ क्रिया है, वयाच्य । २ क के अनुसार, म झर्न ॐ ।।
अन्न वहाँ चाहे र अन्य कारक ( झर-झिकर दिश्रा, लिं?
कभी भी उसके अनुसार न चले । जब कर्ता तथा का ही उद्दार छोड़
दिया, तब और किसी की ओर क्या देखना । इ इ की बातें क्रिया-
प्रकरण में स्पष्ट होंगी । यहाँ इतना ही कहना है कि कल तथा कर्म, इन दो
फारकों की स्थिति क्रिया के लिए विशेश महत्व रखती है। बुद्ध कुरा गई
अधिकरश आदि का प्रयोग र कर्ता के रूप में होता है, तब अवश्य क्रिया
इनके अनुसार चलती है--दाकू अँगुली झाट देती है, हाथ काट देती है।
शहर लाखौं को बचा लेता है' इत्यादि ।
तीसरा कारक है -कर’ ! क्रिया की निष्पत्ति में जिसकी सहायता
‘कता लेता है, उसे शु’ कइते हैं । कृर में कुरक हैं। उस ने छ
से रावण को सारा' ! राम' क़त हैं, बारा वर्ष है। करवा भी कारक
है । ‘ब्रा' को मारने ( क्रिया } से सम्बन्ध है। इस ने बन्द को पुस्तक
दी' । राम ने ही, पुस्तक दी, यो राम' तथइ ‘पुस्तक' कर्ता-कर्म । *विन्द
को दी वह पुस्तक, यों ‘देने' ( क्रिय} का संवन्य ‘भोविन्द से भी
हुअा। यह ‘सम्प्रदान कारक हुआ । जिसे कुछ दिया जाए, वह
पेड़ से पचा पृथ्वी पर गिरा । पत्ता गिरा, पेड़ से ! तो पेड़ अप-
दान हुआ है पेड़ से भी गिरने का खंडन्छ हैं, वहीं से गिरा है वह । इसलिए
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