पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/१८४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
(१३९)


सर्वत्र कर्म ( रोटी ) के अनुसार क्रिया के लिंग, वचन, पुरुष हैं--- खाई । | जब कभी इन दोनों में से किली की भी पद्धति क्रिया नई स्वीकार करते और अपनी अलग पद्धति अपनाती है, तब किसी भी { तीसरे) कारक का सहारा नहीं ले सदा पुझिक दबन रहती है, ‘अन्यपुरुष' । अर्थात् था तो कता के अनुसार, या कृर्म के अनुसार या फिर सर्वथा स्वदंत्र--- तुम ने इस को देखा छ । के के देला सत्र देला’ क्रिया है, वयाच्य । २ क के अनुसार, म झर्न ॐ ।। अन्न वहाँ चाहे र अन्य कारक ( झर-झिकर दिश्रा, लिं? कभी भी उसके अनुसार न चले । जब कर्ता तथा का ही उद्दार छोड़ दिया, तब और किसी की ओर क्या देखना । इ इ की बातें क्रिया- प्रकरण में स्पष्ट होंगी । यहाँ इतना ही कहना है कि कल तथा कर्म, इन दो फारकों की स्थिति क्रिया के लिए विशेश महत्व रखती है। बुद्ध कुरा गई अधिकरश आदि का प्रयोग र कर्ता के रूप में होता है, तब अवश्य क्रिया इनके अनुसार चलती है--दाकू अँगुली झाट देती है, हाथ काट देती है। शहर लाखौं को बचा लेता है' इत्यादि । तीसरा कारक है -कर’ ! क्रिया की निष्पत्ति में जिसकी सहायता ‘कता लेता है, उसे शु’ कइते हैं । कृर में कुरक हैं। उस ने छ से रावण को सारा' ! राम' क़त हैं, बारा वर्ष है। करवा भी कारक है । ‘ब्रा' को मारने ( क्रिया } से सम्बन्ध है। इस ने बन्द को पुस्तक दी' । राम ने ही, पुस्तक दी, यो राम' तथइ ‘पुस्तक' कर्ता-कर्म । *विन्द को दी वह पुस्तक, यों ‘देने' ( क्रिय} का संवन्य ‘भोविन्द से भी हुअा। यह ‘सम्प्रदान कारक हुआ । जिसे कुछ दिया जाए, वह पेड़ से पचा पृथ्वी पर गिरा । पत्ता गिरा, पेड़ से ! तो पेड़ अप- दान हुआ है पेड़ से भी गिरने का खंडन्छ हैं, वहीं से गिरा है वह । इसलिए