पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/१९१

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निथम कहीं नहीं गया है, जहाँ था, इहीं है। इस एक अपवाद से नियम नहीं डिगता । -एफ व्यापक नियम के नीस अपवाद होते हैं, यहाँ यह तो एक ही है। श्रो, “यइ अपवाद है' कह कर सरलता से आगे बढ़ा जा सकता हैं । भूगोल' की पुस्तक में वही लिखा जाएगा कि भारत के उत्तरीय ज्ञांचल पर हिमालय है । इहाँ अह बताने की जरूरत नहीं कि वह उत्तर में ही क्यों है; दक्षिा में क्यों न उभः । व्याकर कार' शब्द की स्थिति मात्र देखते हैं; परन्तु ईन्दी ऐस? वैज्ञानिक भाषा है कि किसी चीज को यों ही छोड़ देना कुछ अच्छा न रोरा ! 'राम में फल लिया और इस फल लाया इन प्रयोगों पर सन् १९४२ से १९४४ त, मैं सिर खपाता रहा । झाखर चीज हूँढे मिल गई ! बात ध्यान में श्री गई और कई जगह मैंने उसे प्रकट भी किया । राष्ट्रभाषा का प्रथम व्याकरण' लिखा, तब यह चीज कुछ दिम्तार से समझाई। किसी ने भी अाज तक इस पर कोई विप्रतिपत्ति नहीं उठाई है। और मैं समझता हूँ, यह चीड़ भी पक्की हो गई है-पक्की है। भूमिका लम्बी हो गई ! छात यह है कि भाषा के प्रवाह में बहते-बहते कई संश्लिष्ट शब्द विश्लष्ट हो जाते हैं और कई विश्लिष्ट संश्लिष्ट हो कर चलने लगते हैं। यह सब अपने आप होता है--किसी व्याकरणकार के नियम से या राजाज्ञा से नहीं । ‘लाना' संयुक्त क्रिया है । ‘ले' तथा 'श्रा घातुओं को अलक्षित संश्लष हो गया है--सन्धि हो गई है। ले कर ना’ और ‘लानः क ही चीज हैं। 'ले श्राना’ यह विलिट प्रयोग 6 वैकल्पिक होता है, किंचित् अर्थ-भेद से । यानी दोनों धातुओं में वैकल्पिक सन्नि है ! 'के' के बारे “श्र धातु अई। इस धातु में एक विशेषता है । संवाद के उपसर्ग घ्झो हिन्दी ने धातु के रूप में प्रवाई कर लिया हैं। यदि के ६' को तो ‘ा धातु बना लिया, पर 'अति' के अश' अंश को 'अजा कर के ले लिया जाता, त अझ जगह शब्द-भ्रम होता। इस लिए अत्र हिन्दी ने लिया, धातु के रूप में । परन्तु ‘थ्रा' का संस्कृत--संस्कार भी शायद बना रहा । संस्कृत में नियस हैं -नित्या धातूपसर्गयोः सहित-धातु तथा उपलमें सन्धि अवश्य होती है। संस्कृत में इरति' के पूर्व ' ' समू' आदि उस के योग से विरति इरहिरति' जैसे क्रि-रूप बन जाते हैं-श्रथ ही छातु का बदल जाता है । इिन्१ में जाता है। खास है आदि क्रि:-रू. की देसी बनावट है कि संस्कृत उपज का ईन से मेल-मिलापसम्भव ही नहीं । परन्तु