३—कुछ फूल घर ले जाने को दिल करता है।
४-धभी बन जाने को सुब का मन चलता है।
ये भाववाचक संज्ञाएँ हैं । संस्कृत में भावे “तुम्” होता है--ठितुम्”
अन्तुम् आदि। “पठितुम्-“पढ़ने को । “पठितुं मनो मे--मेरा मन पढ़ने
को है ।
साधारणतः कर्म कारक में कोई का प्रयोग प्रसिद्ध ही है। यदि श्राव-
श्यक न हो, तो और बात है।
१.गीता को सम्पूर्ण संसार मानता है।
२--- सभी सनातनी हिन्दू गंश को मानते हैं।
यहाँ गति” तथा “गा' कर्म कारक हैं मानने के। को’ का प्रयोग हैं।
इसी तरह
१-मैं इस घर को खूब चानता हूँ
२—उस देश को मैं समझता हूँ।
यहाँ भी कर्म में 'को' विभक्ति है। निर्विभक्विक प्रयोग यहाँ य न
होंगे-
१—गीता सम्पूर्ण संसार भानता है।
२-सभी सनातनी हिन्दू गं मानते हैं।
३—-मैं यह घई खूब जानता हूँ।
४---वह देश मैं समझता हूँ
ये प्रयोग यल हैं ! ‘क’ का प्रयोग आवश्यक है। परन्तु यहाँ के के
बिना कर्म रहेगा--
१.-मैं यह रास्ता जानता हैं।
२–इम गणित न्यूज समझते हैं; पर कविता नहीं समझ
पाते !
दोनों तरह के प्रयोगों में सुक्ष्म अर्थ-भैद है।
‘६ सहायक-क्रिया की तरह जब हो-
१---राम को अब पुस्तक पढ़ने दो
२---मुझे दो धड़ी सो लेदे दो।
पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/१९४
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