पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/२०४

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बदलते हैं। इस संबन्ध में बहुत अधिक कहना है । क्रिया प्रकरण ही तो किसी भी भाषा का असली व्याकरण है। वाक्य में क्रिया ही प्रधान होती है। उस का विवेचन करने के लिए यह सब भूमिका चल रही है। पुस्तक का उत्तराद्ध इसो गम्भीर तथा जटिल विषय के लिए रखा गया है। वहीं का भेद खुलेंगे' । यहाँ गंगा की गैल में मदार के गीत' ठीक नहीं । ७-संबन्ध-विभक्तियाँ झें, है, लेः हिंन्दी की थे तीन संबन्ध-विभक्तियाँ हैं । कता-काक में लगनेवाली 'ने' विभक्त अलग है। वह सर्वत्र चलती है। ग्र यहू' संवन्ध फ्रेंक करनेवाली 'ने' लिभक्ति केवल अपने में लगती है । का-के-की, -, ना-ले नी विश्व िनहीं, तद्धित-प्रत्यय हैं। मूलतः ‘क’

  • २' तथा 'न' हैं, जो हिन्दी की अपनी विभक्ति ‘अ’ को ‘क’ ' तथा

? बन जाते हैं - राम का, तुम्हारा, अन्दर । संबन्ध संथार में अनेक तरह के होते हैं-दिन- उन्ध, पति-पत्नी संबन्ध मालिक-नौकर संबन्ध, स्व स्वनि-बन्ध दि- १-दूर झा पुत्र रास

  • --इस कई पनी सीता

३-सेठ के वे नौकर ४—यह मेरी पस्त हैं। सर्वत्र पु विभक्ति, रूप परिवर्तन ‘ए’ तथा ‘ई हैं । कभी संबून्ध-प्रत्ययों से कर्तृत्व आदि भी प्रकट होता है, १-फल हमारा अंजन है। २-फर्ते का भोजन उधम माना गया है। प्रथम चाय में “हमारा कर्तृत्व प्रकट करता है, “भोजन क्रिया है। कल' भीजद-क्रया के इस है। दूसरे उदाहरण में फलों का कर्म के प्रकट करता है ! फल भोजन', थाने जाने की ऊ । कहीं अविवक्षित है। ‘२ क काशी जाना अच्छा रहा' वाक्य में राम का कर्तृत्व प्रकट करता हैं, 'जाला’ किया का । “काशी कई हैं । परन्तु ये संबन्ध-प्रत्यय से काहे ए -कर्म आदि 'ना' या संशा की तरह अपनी स्थितिं रखते हैं, जब कि राम काशी जाता है, न काशी या श्रादि कृदन्त-क्रियाएँ ख्यात रूपं रहती हैं। ज्ञाते-जाते' को न टोझ को श्रादि में ‘जाता-जाता यह