पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/२१२

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विभक्ति । सम्बन्ध की 'ने' तो अलग है, जो केवल अप' में लगती हैं- अपने दर दौर हैं।' ‘प्रसव करने के अर्थ में ब्रजभाषा तथा राजस्थाले एक्ल पृथए या भी रखती हैं, जो संस्कृ ‘नन्' ( अति ) से है ? जन्’ का 'अ' धातु-रूप- उनी नै तौ अस अने” । इ न भूतकाल में ज’ हो जाता है, जइ ‘’ प्रत्यय सामने आता है --- कान्हे सुन सुदी हैं जवन्द } इसी का अझर्नक या कर्म-कर्तृक्ष रूप भी जा होती है- 'नन्द सर वर ढोडा जो नन्द के घर वालक हुए हैं । ‘नन्द के ग्राटे हरि पु नै ' संबन्ध-विभक्षिः ॐ} ‘मई ब्रा में कभी चौधरी के अर्थ में इज था, जि का लीलिझ-रू 'मह' होता है ! परन्तु अभाबा ॐक अर्मज्ञ' ने 'इरि जादः हः अर्थ शिया ई- चौका-बर्तन करने वाली दास’ ? यानी ‘भरि’ को ‘भ’ समझ लिया है ! खैर, यहाँ अपने को मललन है संबन्ध-विभकि और लंबन्ध-प्रत्यय से । भाषा में प्रसवर्थक जुन’ घनु सकर्मक है, जिस में भूतकाल में “य' प्रत्यय 'कर्मणि' होता है - अनुदा ने इक न्या जाई देवलि ने इक दी जाय | खायो' का रु-लिङ्ग रूप ‘लाई है। इस का अकर्मक रूप भी ऐसा ही नन्द महर धर दो जय नन्द के घर बञ्चर हुआ । सकर्मक क्रिया कर्म-प्राय रहे गी और कृत में १ जषा में ) ने विभक्ति विकल्प से लगे गी-सुदड़ जाई कन्या' रूप भी चलती है। स्कुरदास आदि दलाल कवि ने ३' के बिना के अधिक प्रश्र किं हैं---ॐ ना दधि खाय' । ड़ी बोली के संग से झल में ‘ने का भी प्रयोग सुलभ है। सो, जसुदा ने इक कन्या हाई' हो, या ‘जसुदा जाई अन्या’ को ‘जमुदः झर्ता कारक हैं । “प्र करनः' अर्थ है

  • ज' (<दन' ) का इस लिए-