में 'न'--'पट नी प्रभुत:'.-.-पाट की प्रभुता । हिन्दी की सब बोलियों में
प्रश्ना’ ‘अपन’ अन’ आप रूप में ही न्’ संबन्ध-प्रत्यय लगता है ।
राजस्थान कीर-प्रदेश है; इस लिए की मधुरता को वा' जैसे रूप में वी-
चित्र =नि ३ दी है । परन्तु ‘क’ ?' तथा 'न' का प्रयोग उसी तरह है। के,
३, भे विभक्तियाँ भी चरार हैं। और ‘’ तथा छो’ पुंप्रत्ययान्तों के
फीलिई रूप भी सत्र ईन्द, इलारान्त ही होते हैं ।
| पूरबी बेलियों में भी क, र, न संबन्ध-प्रत्यय तथा के 'रे' 'ने' संबन्ध-
भिलिय बराबर है। हाँ, अत्युर्यों में कोई संज्ञा-विभक्ति नहीं लगती-रासक,
तुम्हार, अपन ।
इसी तरह ‘दोर’ ‘मोर' श्रादि । बिहार की भोजपुरी, मगही तथा भैथिली
में भी उपर्युक्त तीनो सम्बन्ध-प्रलय तथा सम्बन्ध-विभर्तियाँ हैं । इस लिए
में भी हिन्दी-रिवार में हैं । इँला झाद में 'कु' प्रत्यय तथः के विभक्ति
नहीं है। वहाँ २' दिभ ही कहीं २’ रूप में और कहीं वर्ण-व्यत्यय से
- रूप में हैं-सीतार कथा'-'मेर कथा'। थानी सम्बन्ध प्रत्यय नहीं
हैं, मुम्बन्ध-विभक्ति है और इ'के' का अभाव है । इस लिए बँगला श्रादि भी हिन्दी की बोलियाँ नहीं हैं। | मराठी में ‘क’ प्रत्यय की जगह च” है और पुविभक्ति कदाचित् ‘खड़ीं बोल' वाली ही 'अ' है—रम चा-( रास का )। सो, मराठी भी हिन्दी को बोल; नईः । तथावि, पंजःची, गुजराती, मराठी, बँगली शादि सभी भाषक ही भूल से हैं। कार, रवा, जा आदि धातु भी सर्वत्र प्रायः अङ-रूप हैं । यानः इन सत्र माया को दो भारों में बाँटा जा सकता है १- इन्दी की औलिय' और ३-हिन्द फ्री बोलि ” ।
भाषा-सम्बन्धी एक भ्रम
प्रासंगिक इच बहुन अड़ गई है; पर यहीं एक अन्य बात पर भी विदार कर लेना चाईि, छिक्का सम्शुन्ध है हिन्दी के सम्बन्-प्रत्ययों से तथा अन्य भिलियों से हैं । कुछ श, कुछ दिनों से, बिहान की मोजपुरी, नाही तथा मैथिली को छिन्द-परिवार के शुरू राष्ट्रसमिया आदि के साथ जोड़ने लगे हैं !