पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/२२२

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१ १७९७ ) १-~-राम के ए बिना काम चल नहीं रहा हैं। ३---राम के अाए बिना कम छले बार नहीं । यह नह? | भूतकाल के व्याख्यान का वह रूप होत, हो “ये 'श्री' की तरह बचन-भेद तथा लिङ्ग-भेद भ होता है परन्तु वह कुछ नहीं; सर्वत्र एकरच “शा८” रक्षः हैं- १---लड़। ॐ ए जिना


ॐ, र विना

से, यह ‘श्रख्यात' नहीं हैं ; विकिय संज्ञान में लगी हैं । ब्य में भी पुलय, द का जि का भेद न होता; परन्तु विभक्ति कुई लगती हैं-जन है, तब से दि । अन्न हे दारू बाहि बर :

  • अवधा' । ब्रजभाषा में भी यही स्थित है। संस्कृत में भी य * श्रा

दिन्कियाँ झाली हैं, जिन ॐ ‘अन्यादानुः सूत्र में जोर हो जाता है । तभी व्य” इद ऊइतने हैं । विना विभक्ति के पद' न दे, उन क्रम प्रयोग ई न हो! ; झ झुचि के काश बैंस न करना करनी पड़ी; श्रव्यों से विभक्तियों की लंका मानना पड़ा । हिन्दी में विभकियों के बिना भी पड़ चलते हैं; इस लि लाई झड़े और फिर तय करने की कल्पना नहीं । अव्ययी में विभक्ति न लगे, ऐसा कोई विधान संस्कृत में भी नहीं है। केवल यह

  • अह्म भ्रक' वा अव्यय के लिए लिखा है :-

सदृशं त्रिषु लिघु, सबसु छ विभक्तियु, वचनेषु च सर्वेषु, अन्न व्येति, तदव्ययम् ।


जो सब लिङ्गों में एक-सा रहे और सभी विभक्तियों में तथा वचनों

में जो रूल्लरित न , वह अथ’ यहाँ इतना ही कहा गया है कि केई भी विभक्ति आने पर अव्यय में रूपान्तर नहीं होता--- | जुड़ से, क्षेत्र में, ईई के, अादि देखिए, कई रूपान्तर नई है। वर्षों से जी का' तबों ने