पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/२३७

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उठना हैं, छात्रा को उठना है । 'न' कृदन्त प्रत्यय में सर्वत्र सदा पुविभक्ति १ अर' ) के दर्शन हो । इस सम्बन्ध की विशेष बातें क्रिया-प्रकरण में बताई ही जायँगी । विशेषणों की भी विशेष च पृथक् की जाए गी । इस लिए यह इतना ही क्षेत्र में कहने-सुनने की बात है कि हिन्दी का पु’प्रत्यय ‘ा' है और स्त्रीत्रय ' है । इकारान्त-उकारान्त शब्द हिन्दी के अपने प्रायः हैं हैं नी ? * की 'भि । विसर्ग ) हिन्दी ने रखी नहीं हैं। श्रीमान् ‘म’ ‘नई' यादि सुन्न इ7 स्त्रीलिङ्ग में चलते ही हैं । “लक्ष्म के दिरररर हु कृर लक्ष्मी शहीत है। कुछ प्रासंगिक चर्चा । fन्दी के सुप्रसिद्ध कवि पं० सुमित्रानन्दन पन्त चन्द्रमा प्रथार’ लंझि में करते हैं। इस लिए कि यह बहुत सुन्दर हैं ! ऐम करना शब्दू-जत् । अन्धाधुन्धी है। तब तो झवि पन्त को भी हम स्त्रीरूप से प्रयोग कर सकते हैं श्रीसुमित्रानन्दन पन्त कमनी कविता करती है । सुन्दर न किसी स्त्री से फस थोड़े ही हैं ! कुसुम, पुष्प, प्रसून अादि तथः पल्लव, शतदल आदि शब्द भी सुन्दरता -कोमलता के कारण स्त्रीलिङ्क में छोइ ले सका हैं ! अह सुन गई हैं। पंडित से पंडितान' 'पु'योग' में ही बनता है-पंडित की स्त्री पंडि- तानी । यदि स्त्र में भी पाण्डिल्य हो, तो फिर ‘पण्डिता प्रयोग होगा- परिइत रमा वाई' । संस्कृत में जैसे 'क्रायन' और 'अक्षय' । ‘अचा- यांन’ में न’ को ‘’ बन्न चाहिए था, संस्कृत-नियम के अनुसार; जैसे इन्द्रा में । पनु वाहिककार कात्यायन ने रोक लगा दी–‘अन्चिाय- दत्वं च --- आचार्य की अं' कहना हो, ते प्रत्यय के ‘न' को 'ण' नहीं होता है। यह विन्द्र कदाचित् उस बेदारी का श्राण्डित्य एकट करने के लिए । साधारवा जन ‘शु को 'न' बोलते ही हैं---‘कारल’ ‘मरन' आदि । अाचार्य अपठित श्री भी ऐसा ही बोलती होगी । दूसरी स्त्रियाँ भी 'चिन कदाचि बोलत हौं । इस लिए ‘अल्वम् का विधान ! बोल कार पारिए प्रकृ रहे की चाह इस की प्रतिक्रिया में ऐसी कि त रू झाछुत बना दंशुः गया। शब्द के आदि में भी ‘ए’ ! नामों का भी हो' । कटुता बेहद हो गई ! संसार की कोई भी अन्य भाषा छ ई, जिसके शब्द ॐ श्रादि में शा’ मिले ! परन्तु प्राकृत में यही है। ए' से हड बनाने ६ इन ! पाली में यह कृत्रिमतर नहीं है। यह वाई-